कागजों पर ही सिमटकर
शेष हैं संभावनाएँ
क्या करें शिकवा जहाँ से
मर गयीं संवेदनाएँ
घात करते, लोग सारे
खून में डूबे हुए हैं
व्यर्थ के संवाद करते
आज मनसूबे हुए हैं
रक्तरंजित हो गयी हैं
आदमी की भावनाएँ
झूठ मक्कारी फरेबी
जब विजय का गीत गाते
सत्य की जलती शमा, नित
छटपटाती थी अहाते
हाथ में मदिरा लिए, फिर
मन लुभाती योजनाएँ
आदमी ही संस्कृति के
खून का प्यासा हुआ है
शहर भर परचा छपा, फिर
फूल को किसने छुआ है
गंध से सम्बन्ध टूटे
शूल सी दुर्भावनाएँ
क्या करें शिकवा जहाँ से
मर गयी संवेदनाएँ
-शशि पुरवार