भीड़ में गुम हो गई हैं
भागती परछाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ
वक़्त की इन तकलियों पर
धूप सी है जिंदगी
इक खुशी की चाह में, हर
रात मावस की बदी
रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ
प्यार का हर रंग बदला
पत दरकने भी लगा
यह सहज युगबोध है या
फिर उजाले ने ठगा
स्वार्थ की आँधी चली, मन
पर जमी हैं काइयाँ
साथ मेरे चल रही
खामोश सी तनहाइयाँ
रास्ते अब एक हैं, पर
फासले भी दरमियाँ
दर्प की दीवार अंधी
तोड़ दो खामोशियाँ
मौन भी रचने लगे फिर
प्रेम की रुबाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ
-शशि पुरवार