सूरज सच का कब यार ढला?
कब जीता जग में झूठ भला?
ये द्वंद्व विषमता छोड़ सखे
कर ले सच से गठजोड़ सखे
सुख दुर्लभ है पर लुप्त नहीं
सुख से कोई भी तृप्त नहीं
सुख आकर जाता द्वार चला
जीता कब जग में झूठ भला?
है स्वार्थ निहित रिश्ते जिनके
अफ़सोस बने है दो दिन के
सुन भाग्य करेगा क्या उनका?
अवलम्भ जिन्हें निज सम्बल का
वह दुर्दिन से भी बच निकला
कब जीता जग में झूठ भला?
है कर्णप्रियम ये झूठ सरल
रिसता तन में ज्यों यार गरल
है सत्य कठिन पर शख़्त अटल
सँग यार खड़ा रहता निश्चल
कर हार गए दुर्गुण हमला
कब जीता जग में झूठ भला?
व्यवहार किये जो झूठ सने
समझो अवनति के ग्रास बने
परिवार सखा निज गाँव सभी
मुख मोड़ न आते पास कभी
हर दाँव गया बेकार चला
कब जीता जग में झूठ भला?
जो लोग गए सत्कर्म समझ
खुश हैं सच को निज धर्म समझ
दुख दर्द न उनको ताप डसे
वो पुष्प सरीखें नित विहँसें
तम झूठ यहाँ सच है उजला
कब जीता जग में झूठ भला?
-रकमिश सुल्तानपुरी