एक दिन
मैंने एक
महल बनाया
रेत पर
रेत का महल
बसेरा नहीं बनता
और मैंने
अंजलि भर रेत
समेट ली अपनी
स्मृति पटल पर
यथार्थ के थपेड़ों ने
अंजलि की पकड़
ढ़ीली कर दी
रेत झड़ने लगी
आज मैं
भाव शुन्य सी
निहार रही हूँ
रेतीले ढहते महल को
और अब
लैट आई हूं
यथार्थ की
खाली अंजलि पर
अरे ये क्या?
एक स्वर्ण कण
शेष रह गया है
मेरी रिक्त हथेली में
धंसता हुआ
हाथों की लकीरों में
एक नई लकीर
का रूप लेता हूँ
अब
तुम्ही बताओ
क्या स्वर्ण कण भी कहीं
फैंके जाते हैं?
-पूनम शर्मा