वंदना सहाय
रधिया की आँखें फैल गयीं थीं
विस्मय से
जब मैंने उसे बताया था कि
आज पुत्री-दिवस है
कुछ नहीं समझ पायी थी वह
पर मोटे तौर पर जब मैंने उसे समझाया
कि आज लोग पुत्री को सम्मान देते हैं
उन्हें खास होने का एहसास कराते हैं
यह सुन झाड़ु लगाते हुए वह इतना ही
कह पायी थी-“ऐसा क्या”
और निकल आयीं थीं उसकी आँखें
अपनी कोटरों से बाहर
फिर अनजाने में ही मैंने पूछ लिया था-
“जब तू पैदा हुई थी तो क्या हुआ था
माँ ने कुछ बताया था?”
आँखें फिर से कोटरों में जा बसी थीं
मैंने जब फिर से पूछा
तो आँखों में लेकर नमी का सहारा
देखने लगी इधर-उधर
फिर उसने कहा कि उसकी माँ ने बताया था
कि उसके पैदा होने के करीब चौबीस घंटे बाद
उसका पिता पउआ लगा कर आया था गिरता-पड़ता
और प्रसव-पीड़ा के बाद निढाल पड़ी उसकी माँ को
बाहर से ही कमरे की खिसकी ईंट से झाँक कर
चिल्लाया और कहा- “कमबख्त, कर दी न पैदा बेटी
बड़ी मुश्किल से होता था नसीब पउआ
तेरी थोड़ी सी कमाई से
अब इसके आने से क्या खाक नसीब होगा
फिर वह घृणा से थूकता हुआ
अँधेरे में गायब हो गया
मैंने अपने पिता को कभी नहीं देखा
माँ जिंदगीभर विधवा बन जीती रही”
रधिया पोछे का पानी बदलने चली गयी
मैं और कुछ पूछ न पायी
बहुत सारे प्रश्न अनुत्तरित रह गये
शायद बिना पिता से जीने का
आशीर्वाद मिले हुए भी
वह कहीं जिंदा होगी
और उस दिन मैं
लंगड़ी संवेदना के साथ
रचने बैठी-
एक अधूरी कविता