ये दुनिया हमें रास आई नहीं, चलो आसमाँ में चलें
जहाँ झूठ, फरेब, मक्करी न हो, उसी जहाँ में चलें
न ताज़ी हवा आती है, न खुली धूप इमारतों में
नींद अब भी अच्छी आएगी, मिट्टी के मकाँ में चलें
बैठ के किनारों पे कुछ भी हासिल नहीं होता
थोड़ी हिम्मत कर के इक दफे, जिद्दी तूफाँ में चलें
बहुत शोर है धर्म, जाति, बिरादरी का इस तरह
अमन की मुकम्मल तलाश में किसी बयाबाँ में चलें
तो क्या हुआ कि ज़माने को हमारी कद्र नहीं
किसी के कर्ज़दार थोड़े हैं, हम अपनी गुमाँ में चलें
हमारी तबियत ही है कुछ ऐसी, अब क्या करें
महफिल बुरा कहे तो कहे, हम सच की ज़ुबाँ में चलें
सलिल सरोज
नई दिल्ली