हृदय में सृजन हो रहा मर्म का
अब हँसने का अभिनय हमसे होता नहीं
मन में संशय का बन रहा चक्रव्यूह
समय को दोष दूँ या स्वयं को कहूँ
तुम जैसा कहो मैं वही बस करूँ
गीत विरह का लिखूँ या श्रृंगार रचूँ
चिलचिलाती यादों की धूप में
मेरी चाहतों का तन्हा सफ़र
अब कटता नहीं है तुम्हारे बगैर
दुख की बदरी लिखूँ या सुख का छाँव कहूँ
तुम जैसा कहो मैं वही बस करूँ
गीत विरह का लिखूँ या श्रृंगार रचूँ
कट रही उम्र प्रतीक्षा की बाहों में
तन सिकुड़ रहा समय की धाह से
अब ज़मी पर धुआँ ही धुआँ दिख रहा
आसमां निहारूँ या ज़मी छोड़ दूँ
तुम जैसा कहो मैं वही बस करूँ
गीत विरह का लिखूँ या श्रृंगार रचूँ
मेरे चेहरे पे अफ़सोस की हैं झुर्रियां
अब उबड़ -खाबड़ हो गयी ज़िन्दगी
मन को चुभ रहा है ये बदलता मौसम
इसे सावन समझूँ या पतझड़ कहूँ
तुम जैसा कहो मैं वही बस करूँ
गीत विरह का लिखूँ या श्रृंगार रचूँ
सूरज निकले भले ना समय से पहले
छत पे तेरी चाँदनी बिखेरती रहूंगी सदा
नहीं है यकीं तो परख कर देख लो
बोलो सहर लिखूँ या शाम लिखूँ
तुम जैसा कहो मैं वही बस करूँ
गीत विरह का लिखूँ या श्रृंगार रचूँ
तू मुझमें छुपा है सदा इश्क़ बनकर
ये कहनें की हमको जरूरत नहीं
तुम समाये हो मुझमें कितना सनम
बोलो आधा लिखूँ या पूरा लिखूँ
तुम जैसा कहो मैं वही बस करूँ
गीत विरह का लिखूंँ या श्रृंगार रचूँ
प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश