अँधेरा घना हो तो शमा जलानी पड़ती है
ज़िन्दगी आसां नहीं होती, बनानी पड़ती है
ख़ैरियत पूछ कर अक़्सर मज़े लेते हैं लोग,
तबियत ठीक भी ना हो तो बतानी पड़ती है
हैसियत मार देती है रोज अरमान मेरे,
ख़्वाहिशें दिल में रोज़ ही दबानी पड़ती है
हौसले जब चराग़ों के पस्त हो जायें,
मशाल तीरगी में फिर जलानी पड़ती है
बारहा जिस बात से दिल दुखे ‘गोपाल’
ना चाहते हुये भी वो भुलानी पड़ती है
कृष्ण गोपाल सोलंकी
नई दिल्ली
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