आदत ये पुरानी है कमज़र्फ़ जमाने की।।
करता है सदा कोशिश उठते को गिराने की।।
डरते हैं उतरने से चढ़ते हुए दरिया में
करते हैं वही बातें दरिया को सुखाने की।।
सच बात छुपाने से छुपती है कहाँ प्यारे
कोशिश फिजूल है सब बातों को बनाने की।।
अबला नहीं, हो सबला क्या कुछ न कर सकोगी
छोड़ो भी अब ये आदत आँसू को बहाने की।।
उलझोगे अगर इनमें उलझे ही रहोगे तुम
सुन लो औ गुजर जाओ बातें हैं जमाने की।।
इक तीर से ये दो दो करती है शिकार अक्सर
ये अहले सियासत की खूबी है निशाने की।।
समीर द्विवेदी ‘नितान्त’
कन्नौज, उत्तर प्रदेश