रौशनी घायल पड़ी है आजकल
हर नजर में बेबसी है आजकल
नाखुदा तो साफ बच जाता है दोस्त
सिर्फ कश्ती डूबती है आजकल
स्वार्थ के कदमों तले इन्सानियत
राह में कुचली पड़ी है आजकल
मौत का बाजार मँहगा है जरूर
जिन्दगी सस्ती हुई है आजकल
कोई क्या बदलेगा अब हालात को
सबको अपनी ही पड़ी है आजकल
कौन सुनता है किसी की अब नितान्त
रंगे-दुनिया और ही है आजकल
समीर द्विवेदी नितान्त
कन्नौज, उत्तर प्रदेश