हे स्त्री: गरिमा गौतम

हे स्त्री
तू कहाँ छोड़ती है साथ
जो जुड़ती है एक बार
निभाती है
सात फेरों के
सात वचनों का साथ

न्यौछावर करती
तन मन जीवन
हे स्त्री
तू कहाँ छोड़ती है
छोड़ती है तो
ख्वाब अपने
सुकून अपना
पलकों में
उनींदी रातें

हे स्त्री
तू कहाँ छोड़ती है साथ
तू छोड़ती है तो
गालियां अपनी,
माँ का दुलार,
पिता का लाड़
भाईयों की नोंक झोंक
सहेलियों का साथ

हे स्त्री
तू कहाँ छोड़ती है साथ
बंधती है जो
एक बार बंधन में
आजीवन बंध जाती है
पुरुषों के बनाएं बन्धनों में
आभूषणों के लोभ
माँ बनने के अरमान
ढालती जाती है
स्वयं को
बदलती जाती है
और
बदलते-बदलते
सज जाती है
अर्थी पर
पर तू साथ नहीं छोड़ती
तू छोड़ती है…….?

गरिमा राकेश गौतम
कोटा, राजस्थान