सुख का छोर छीनकर मुझको, पीड़ाओं का छोर दिया।
निठुर नियति ने शांत चित्त को, उथल-पुथल घनघोर दिया।
जीवन के उपवन में पतझर, नयन श्याम घन सावन के।
सपनों की कलियाँ मुरझाईं, विद्रोही स्वर धड़कन के।
व्यथा-कथा के भूचालों ने, अंतर्मन झकझोर दिया।
रिश्तों की प्रेमिल पंखुरियों को, लिप्साओं ने लूटा।
नेह बिना अंतर्घट रीते, तृप्ति बिना साहस छूटा।
मन को गहरी झील बनाकर, उसमें गरल हिलोर दिया।
सिर पर गठरी संघर्षों की, शूल बिछे हैं राहों में।
खटक रहे हम फिर भी देखो, छलिया कुटिल निगाहों में।
सुख-सपनों की पर्णकुटी को, वज्राघात कठोर दिया।
स्नेहलता नीर