मैं क्या कहूं कि साथ मेरे क्या नहीं हुआ
अच्छा भला किया था पर अच्छा नहीं हुआ
कैसे करेगा मुझसे नदामत का तजकिरा
जिसको कभी यक़ीन भी पक्का नहीं हुआ
वो भी किसी की ज़ात से मन्सूब हो गया
बिछड़े हुए तो उसको भी हफ्ता नहीं हुआ
ऐसे भी ना तमाम हुई आपकी गज़ल
हर शेर हो गया मगर मक्ता नहीं हुआ
मुर्शिद मुझे हमेशा ही इक ग़म सताएगा
सौ झूठ बोल कर भी मैं सच्चा नहीं हुआ
इक ग़म-शनास शख्स की तन्हाईयों को देख
फ़िर मैं किसी के इश्क में अन्धा नहीं हुआ
सय्यद ताहा कादरी