ओ स्त्री: अंकिता चतुर्वेदी

सुनो
ओ स्त्री…
अपनी ख़ुशी टांगने को तुम कंधे क्यों तलाशती हो?
कमज़ोर हो, ये वहम क्यों पालती हो?

ख़ुश रहो के ये काजल तुम्हारी आँखों में आकर संवर जाता है,
ख़ुश रहो के कालिख़ को तुम निखार देती हो।

ख़ुश रहो के तुम्हारा माथा बिंदिया की ख़ुशकिस्मती है,
ख़ुश रहो के तुम्हारा रोम रोम बेशक़ीमती है।

ख़ुश रहो के तुम न होतीं तो क्या क्या न होता,
न मकानों के घर हुए होते, न आसरा होता।

न रसोइयों से ख़ुशबुएँ ममता की, उड़ रही होतीं,
न त्योहारों पर महफ़िलें सज रही होतीं।

ख़ुश रहो के तुम बिन कुछ नहीं है,
तुम्हारे हुस्न से ये आसमां दिलक़श और ये ज़मीं हसीं है।

ख़ुश रहो के रब ने तुम्हें पैदा ही ख़ुद मुख़्तार किया ,
फिर क्यों किसी और को तुमने अपनी मुस्कानों का हक़दार किया ?

ख़ुश रहो, जान लो के तुम क्या हो
चांद सूरज हरियाली हवा हो।

ख़ुशियाँ देती हो, ख़ुशियां पा भी लो
कभी बेबात गुनगुना भी लो।

अपनी मुस्कुराहटों के फूलों को अपने संघर्ष की मिट्टी में खिलने दो,
अपने पंखों की ताक़त को नया आसमान मिलने दो।

और हां मेरी जां
मत ढूंढो कंधे
के सहारे सरक जाया करते हैं

अंकिता चतुर्वेदी