शजर अपनी ज़िंदगी की भीख हर दिन माँगते हैं
रोज कट के और मर के ज़िंदगी ही बाँटते हैं
कुर्सियाँ हों, मेज हों या और कोई चीज़ घर की
ये दधीचि दूसरों के ही लिए तन त्यागते हैं
इस इलाके में बचे हैं लहलहाते पेड़ थोड़े
पत्थरों के शहर को ठंडी हवाएँ बाँटते हैं
जंगलों को काटते हो गाँव-घर जो हैं किसी के
दूसरा कोई ठिकाना प्राणी-खग क्या जानते हैं?
देख लो नज़रें उठाकर पेड़ से जीवन की धड़कन
काटने वाले कुल्हाड़ी ज़िंदगी पर मारते हैं
अंजना वर्मा