वंदना सहाय
जब आएगा जाड़ा
तो बटोर कर थोड़ी-सी धूप
करूँगी मैं बातें उससे
साझा करूँगी
अपने बचपन की सारी बातें
जब उसके आते ही निकाल लिए जाते
मोटे लिहाफ और गर्म कपड़े
संदूकों से बाहर
धूप भी मृदुल बन
पसरी रहती थी आँगन में
और उसका सानिध्य
ऐसा लगता जैसे सिर पर रख हाथ
कोई देता हो आशीर्वाद
शाम जब टँग जाती
पेड़ों और मकानों की मुँडेरों पर
तो तुम क्षितिज से
चिकोटी काटती सिहरन दे जाते
और फिर देते थे न्योता
लंबी रातों को आने का
जिन लंबी रातों का करती स्वागत
ओस से भींजी उजली सुबह
अब हमारे और तुम्हारे बीच
होता है मौन-मूक संवाद
न तुम कुछ कह पाते हो
और ना हम कुछ सुन पाते है
ऐसे भी
स्काईस्क्रैपरों के बीच
फ्रेंच विन्डोज़ वाले
बंद कमरों में सिमट आए
खिड़की-भर आसमान से
तुम्हारे आने-जाने का
पता भी तो नहीं चलता
और गायब हो गए हैं
चाय की प्यालियों के इर्द-गिर्द
घूमने वाले वे ठहाके भी
जब तुम आते थे
साल में एक बार
किसी उत्सव की तरह
अब तो कई बार
अखंड अकेलेपन में
चाय ठंडी हो
तोड़ जाती है दम