गंगा- वीरेन्द्र तोमर

हिम है उद्गम, बनकर कर प्रपात
मैं गंगा बनकर आई हूँ

टेढ़े-मेढ़े रस्ते चल कर,
मैं देवलोक से आई हूँ

अति निर्मल-शीतल-तरल,
स्वच्छ जल लाई हूँ

औषधियों का भँडार समेटे,
सोना-हीरा, मोती लाई हूँ

इतना करने पर भी मानव,
तू मुझको गंदा करता है

गाँवों और शहरों का कीचड,
मुझ पर रोज पटकता है

ये मत समझे तू अज्ञानी
कि मैं चुप हो कर बहती हूँ

सुधर जा जल्दी समय के भीतर
मैं बस इतना कहती हूँ

माँ-बाप, तेरे पुरखों को तारा,
कैसे तेरा विनाश करूँ

-वीरेन्द्र तोमर