तुम्हारे बिना: रंजीता सिंह ‘फ़लक’

रंजीता सिंह ‘फ़लक’

तुम्हारे बिना
सुबह होती है
पर वैसी
चमकीली नहीं
जो सुबह सुबह
तुम्हारे जी भर
खिलखिला देने से
धूप सी उतरती है
मेरे मन पे
अपनी उनींदी-अलसाई आँखों से
उठते ही तुम्हें देखना
एक कप गर्म चाय सी
ताज़गी भर देता है मुझमें

सुबह थोड़े से अंकुरित चने-मूँग के साथ
अंकुरता प्यार देखती हूँ
मन की सरहदों से बढ़ती हुई
संवेदना पूरी चेतना में
पसरती जाती है
सुबह कई बार
चुपचाप चाय बनाकर
जब खड़े होते हो तुम
तो मेरे साथ होता है
मुस्कुराता हुआ सूरज

मन का गीलापन
और खुरदुरे जीवन में
सीलन से
कई अवांछित पल
जैसे गायब हो जाते हैं

राहें कितनी मुलायम और
फूलों सी हो जाती है
जब सुबह -सुबह
तुम लिख देते हो
एक प्रेम कविता
मेरे नाम
सुनो,
तुमसे दूर बैठकर
तुम्हें जीना
एक स्वप्न-सा सुख देता है
खूब याद करती हूँ तुम्हें
या
करना चाहती हूँ,
ऐसा बिल्कुल नहीं

बस तुमसे दूर होते ही
तुम और निकट
आ लेते हो
पर्स से निकाले गए रुमाल
की खुश्बू की तरह,
अचार के टिफ़िन की महक की तरह
और घर पर छूट गये
किसी ज़रूरी
सामान की तरह
तरह-तरह से तुम्हारा याद आना
याद दिलाता है कि सच में
तुम कैसे मन प्राण में रचे बसे हो

सुनो, तुम्हारे बिना हर सुबह
ज़रा उदास
ज़रा रुआँसी हो जाती है
पर फिर भी मैं बटोर लेती हूँ
तुम्हारे साथ बिताई अनगिनत सुबह
जो मुझमें भर देती है
खूब ऊर्जा
खूब खुशियाँ
खूब सपने,
उड़ती हूँ देर तक
तुम्हारी यादों के
आसमान में