दोस्ती की धरा: सुजाता प्रसाद

सुजाता प्रसाद
नई दिल्ली, भारत
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है पर्यावरण चिथड़े लिबास में
और धरती सांसें गिन रही,
मानव तेरी दरिंदगी से कम
तेरी सब प्रयासें हैं, हां कम, 
तेरी सब प्रयासें हैं

क्यों कुछ दरक रहा है
और कुछ चटक रहा है
बिगड़ रहा रिश्तों का आवरण
धरा दोस्ती की भी सूख रही,
धरा दोस्ती की भी सूख रही

आओ पानी दें धरती को सींचें
कि हो हरा, कोई पौधा तो हंसे
सुबह शाम की हंसी मज़ाक में
फिर रंग बिरंगे कई फूल खिलें,
फिर रंग बिरंगे कई फूल खिलें

शाखों सी कहां गईं वो सब बातें
जो हम झूम कर किया करते थे
खुशियों भरे गिलास में मिलकर
ग़म को घोल कर पिया करते थे,
ग़म को घोल कर पिया करते थे।

पत्तों जैसे सबके हाथ डोल डोल के
सबको शुद्ध ऑक्सीजन दिया करते थे
बच्चों सी निश्छल बातों से फिर
हम मन के मैल धुला करते थे,
हम मन के मैल धुला करते थे

बमुश्किल मिले थे हम एक एक कर
हर हाथ ने संभाला था जोड़ कर जड़
कि कहीं बूढ़ा न हो जाए ये दरख़्त
आओ जाने ना दें उस मिठास को,
आओ जाने ना दें उस मिठास को

खूंटी पर टंगी है देखो,दोस्तों की उदास वर्दी
सूनी है दोस्ती की पाठशाला, कि आ जाओ
खट्टे मीठे अनुभव के बस्ते को लेकर
दोस्ती की धरा को, इंतजार है सबका,
दोस्ती की धरा को, इंतजार है सबका