लोकमान्य तिलक: प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
भोपाल

हे तिलक ! सच थे तिलक तुम माँ के उन्नत भाल के
थे हृदय सम्राट तुम भारत के अपने काल के

सिखायी स्वातंत्र्य की तुमने सही आराधना
संकटों में भी सतत चलती रही तव साधना

देश के प्रति प्रेम की औं’ त्याग की तुम मूर्ति थे
निडर, निश्छल, सत्य, दृढ़ता की सुदृढ़ प्रतिमूर्ति थे

कर रहे थे जिससे तुम इस राष्ट्र की नवसर्जना
भीतिप्रद शासन को थी उस ‘केशरी’ की गर्जना

भाष्य, गीता का दिया तुमने नया संसार को
कर्मनिष्ठा को उभारा धर्म का है सार जो

देश तो आजाद है अब, पर मलिन वातावरण
प्रगति की भौतिक बहुत पर, गिर गया है आचरण

स्वार्थ की है प्रबलता इससे बढ़ी है वेदना
पा सके यह देश तुमसे फिर सृजन की चेतना

तुम अमर इतिहास में, ऊँचा तुम्हारा नाम है
हे दृढव्रती कर्मठ उपासक तुम्हें विनत प्रणाम है