स्मृतियों में बचा है: वंदना पराशर

परिचय
वंदना पराशर
जन्म- 1984, सहरसा, बिहार
शिक्षा- एमए, नेट
पीएचडी (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी)
भाषा- हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, मैथिली (मातृभाषा),
कुछ प्रकाशित कविताएँ- कादंबनी, अभिनव प्रत्यक्षा आदि में प्रकाशित।
ईमेल पता- [email protected]

अब स्मृतियों में बचा है
अपना घर/अपने लोग

रोज़ अपनी ही गलियों से होकर
गुजरता हूं
तलाशते हुए
अपना घर/अपने लोग
कई चेहरे
जिसकी स्मृतियां भी
अब धुंधली पड़ गई है
उन चेहरों की झुर्रियां
या कहूं कि
एक लम्बा गुजरा हुआ समय
घूरता है मुझे, अजनबी समझकर
अपनी ही गलियों में
मेरी स्मृति में बची हुई
भीत का वह घर
जिसकी नींव को भी
बहा ले गई बाढ़
जिसकी दीवारें
मां की बनाई हुई
सुंदर चित्रकारियों से
हमेशा ही सजी रहती थी
वो गलियां जहां अपने
यार-दोस्तों के साथ
कभी कंचा तो कभी
गुल्ली-डंडा खेलते थे हम
वो गलियां
जो हरपल हमारी हंसी-ठिठोली से गुंजायमान रहती थीं
बेशक,
उस रात की लहरें
अपने साथ बहा ले गई
भीत का वह घर
वो गलियां
वो बचपन की यादें
किंतु, मेरे मन में बसी
भीत की वह दीवार
कमजोर नहीं थी
उसकी नींव मेरे अंदर
गहरी जमीं है
जिसे कोई आंधी या कोई बाढ़
अपने साथ बहाकर
नहीं ले जाएगी
भटक-भटककर
थका-हारा मैं
लौट आया हूं
अपनी स्मृति की गलियों में
जहां सुरक्षित बचा है
अपना घर/अपने लोग

गायब हो जाना

गायब हो जाना
एक पूरी प्रक्रिया है
जो दहशत पैदा करती है
यह अचानक नहीं होता
मानचित्र से
कई देश गायब हो गए
शहर से, गांव से
कई लोग गायब हो गए
आंगन से
कई चिड़िया गायब हो गई
अब बुलाने पर भी
कभी नहीं आती
ठीक उसी तरह
जैसे,
वाक्यों के बीच से
शब्द गायब हो रहे हैं
लाइब्रेरी में धूल फांकते
शब्दकोश में भी
कई बार उन शब्दों को ढूंढा
अफसोस,
कहीं नज़र नहीं आया
शायद दीमक ने उसे चाट लिया
जुब़ान भी अब
उन शब्दों का उच्चारण
भूलने लगी है
यह गायब हो जाना
बहुत ही खौफनाक खेल है
जो दहशत पैदा करता है

उखड़े हुए लोग

शहर को शहर बनाते हैं
गांव से उखड़े हुए
कुछ लोग
जिसकी न ज़मीं अपनी होती
न आसमान अपना होता
आधी रोटी खाते
और आधी ही उम्र जीते
ये लोग
उग आते हैं शहर में
कुकुरमुत्ते की तरह
गगनचुंबी इमारतें बनाते
सजाते-संवारते
शहर को शहर बनाते
ये लोग
अपना ठौर तलाशते
भटकते रहते हैं
खानाबदोश की तरह
शहर की तंग गलियों में
नमक की तरह
घुल जाने की इनकी आदत
शहर की हवा संग
घुल जाना चाहती है
किंतु,खाराजल समझकर
शहर ने हमेशा ही
इसे दरकिनार किया
गांव की गंध में लिपटा हुआ तन-मन
न कभी शहर का हो सका
और न ही गांव का
‘गंवार’ का तमगा लटकाए
डोलते रहते हैं
शहर की तंग गलियों में
रोटी की तलाश में

चूल्हे की आग

आग हंसी
बच्चे हंसे
बूढ़े हंसे
घूंघट की ओट में
श्यामा हंसी
देखो!
सबके चेहरे
हैं कितने
खिले-खिले

चाक

स्त्री
गीली मिट्टी की तरह होती है
कई बार
कई रूपों में
वह ढलती है
चाक पर
उसका आकार कभी
स्थायी नहीं होता
वह बदलती रहती है
समय के हिसाब से
कई धूप खाई
वह पकती है आग में
आग में तपकर निकली हुई मूर्तियों में
कुछ के कान
कुछ के मुँह,
नहीं होते हैं
होती हैं तो
गाय-सी बड़ी-बड़ी आँखें
जो झाँकती है
कुम्हार की आँखों में

वंदना पराशर