उकताहट और यह समय: वंदना पराशर

वंदना पराशर

1️⃣
नयापन से उकताहट

एक दिन नयापन से भी उकताहट होने लगेगी
रोशनी की चकाचौंध से तंग आकर
कहीं एकान्त को तलाशते हुए लोग
चांदनी रात को याद करते नज़र आएंगे
लोग एक बार फिर से
लौटना चाहेंगे
पुराने दिनों में
वे ढूंढते हुए नज़र आएंगे
गठरी में बांधकर रखी
अपने उन्हीं पुरानी चीजों को
जिसे नये के आकर्षण में
कबाड़ समझकर फेंक दिया था
एक बार फिर से
गठरी से ढूंढकर निकालेंगे
अपने पुराने कपड़े को
जो समय के साथ
थोड़े घिस गए
जिसका रंग थोड़ा फीका पड़ गया
लेकिन जिसमें गरमाहट
अब भी बची हुई थी
ठीक वैसे ही जैसे
पुराने रिश्ते
वर्षों दूर रहकर भी
मोह बांधे रखती है

2️⃣

यह समय

यह समय
प्रश्न करने का नहीं है
कुछ पूछोगे तो
पकड़े जाओगे
शायद मार भी दिये जाओ
बेहतर है कि
चुप रहो
हां, अगर चाहते हो कि
तुम्हारी सांस चलती रहें तो
सबकुछ देखकर भी
ख़ामोश रहो
वरना प्रश्न करने के जुर्म में
पकड़े जाओगे
तुम जिंदा रहना चाहते हो तो
कर लो अपनी आत्मा की हत्या
अपनी आत्मा से कहो कि
वो त्याग दें अपनी संवेदना
जो बुराइयों को बर्दाश्त नहीं कर पाती है
तुम्हें जीना है तो छोड़ना होगा
वो सबकुछ जो तुम्हें
एक संवेदनशील मनुष्य बनाता है
इस हिंसक हो चुके समय के साथ
तब तुम, शायद बचे रह जाओगे