आज पहली बार कुछ उसने कहा है
अच्छा लगा सोच क्या उसने कहा है
उसको मेरा लिखना पसंद नहीं था
आज कुछ लिखने को उसने कहा है
मायूसी होती थी हाथ की लकीरों से
खुल के जीने को मुझे उसने कहा है
कहते थे मेरी कविताओं में रस नहीं
मुझे शायरी करने को उसने कहा है
बागे-ख़ामोशी मुझे अच्छी लगती है
गुल-ए-खुश्बू लेने को उसने कहा है
मैं तो दिल्लगी-ए-दामन थामे रहा
मुझे मोहब्बत करने को उसने कहा है
उड़ता मेरी किताब अबतक बेरंग थी
मुझसे सफों में रंग भरने उसने कहा है
-सुरेंद्र सैनी बवानीवाल ‘उड़ता’
झज्जर, हरियाणा, 124103
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