गीली मिट्टी को दे रूप,
कुम्हार ने मटका बनाया था
चाक पर रख कभी,
हाथ से थपकाया था
लकड़ी के डंडे से पीटा भी,
चाक पर कई बार घुमाया था
आवे में फिर डालकर,
पहले खूब तपाया था
मटके ने तब जाकर किसी,
राहगीर को पानी पिलाया था
देता जीवन का संदेश हमें,
मटके का यह सफर सुहाना
बैठ जीवन के चाक पर,
पीट दुख के लाठी से,
सुख हौले से थपका जाती
विपत्तियों के आवे से तप,
निखर जाते हैं, तब
मनुजता की कलश से
जाता है मिल ठंडा जल
जो मिटा जाती है प्यास
असीमित कामनाओं की
-अन्नपूर्णा जवाहर देवांगन
महासमुंद, छत्तीसगढ़