रूची शाही
जंग जीतना था मुझे
जो मेरी मुझी से थी
तुमको लगता था मैं तुमसे लड़ रही हूँ
पर असल में, मैं खुद से लड़ती थी
हज़ारो घाव सैकड़ों लानत और
अपने स्वाभिमान को तितर-बितर कर भी
हर बार हार जाती थी मैं
ये एक ऐसा युद्ध था जिसमें
मैं बार-बार पराजित होती रही
कितने दुख दिए मैंने खुद को ही
अपाहिज़ बना दिया मैंने अपने मन को
जिसे चलने के लिए
बैसाखी की जरूरत पड़ती थी
दो पग चलती तो लगता अब नहीं
बस कहीं से तुम आ जाओ
और दे जाओ अपना साथ
मैंने सहारा मांगा था तुमसे
तुम भीख स्वरूप अपने प्रेम की
बैसाखी थमा गए मुझे
तुम्हारा जब जी चाहता देते थे बैसाखी
पर जब नहीं देते थे ना
तो मेरी हालत मेरे लिए असहनीय
हो जाया करती थी
खुद से लड़ती तुमको मनाती
कभी पुकारती कभी कोसती
कभी चिल्लाती कभी रोती
मैं थक के पागल सी हो जाया करती थी
पर अब उस युद्ध का अंत हो गया है
हाँ जीत नहीं पायी हूँ मैं
हारा हुआ महसूस करती हूँ मै
पर इतना तो किया न मैंने
कि वो बैसाखी तोड़ चुकी हूँ मैं