समीक्षक- वंदना पराशर
कवयित्री- माला सिंह
कविता-संग्रह- कुछ बबूल कुछ सेमल सी
रचना की सार्थकता तभी सिद्ध होती है जब रचना आम पाठकों तक पहुंचें। इसके लिए क्लिष्ट भाषा नहीं अपितु सहज और सरल भाषा शैली का होना ज़रूरी है ऐसा मेरा मानना है।
माला सिंह जी की कविताओं को पढ़ते हुए हम यह कह सकते हैं कि उनकी भाषा आम- जनों की भाषा है। जो बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात कविताओं में कह जाती हैं। वे अपनी कविताओं में क्लिष्ट भाषा की जगह रोजमर्रा के बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले आम बोलचाल के शब्दों का चयन करती हैं, इसलिए आम पाठकों को विशेष श्रम की आवश्यकता नहीं होती है और कविता के मूल भाव उन तक आसानी से पहुंच जाती है।
कहना न होगा कि माला सिंह जी की भाषा जितनी सहज और सरल है उतनी ही गहरी भी। हाल ही में प्रकाशित उनका कविता-संग्रह ‘कुछ बबूल कुछ सेमल सी’ प्रकाशित हुई है। माला जी जीवन को बहुत ही करीब से देखती हैं और महसूस करती हैं। उनकी कविताएं जीवन के कोमल-कठोर वास्तविकताओं की ऊपज हैं। अपने आस-पड़ोस, समाज और देश में घट रही घटनाओं का गहन मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि से अध्ययन कर शब्दों में के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक करती हैं।
सूरज रोज़ उगता ढलता है/पर पिता एक बार-बस्स/’सूरज से पिता’ शीर्षक कविता की इन चंद पंक्तियों में ही पिता की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है। पिता जो अपनी पूरी उम्र गुजार देते हैं बच्चों की ख़्वाहिशों और ज़रुरतों को पूरी करने में वही पिता जब उम्र ढलने पर थोड़े झुक जाते हैं, कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं तो उनके अपने ही बच्चे उन्हें बोझ समझने लगते हैं।
कवयित्री का संवेदनशील हृदय समाज और परिवार में लिंग भेद के आधार पर हो रहे अन्यायों का पुरजोर विरोध करती हैं। ‘हम बेटियां’ शीर्षक कविता में कवयित्री कहती हैं कि “अक्षर और मात्रा ज्ञान के/शुरुआती पुस्तक से ही/हमारे साथ भेदभाव/शुरू हो जाता है- शारदा माता का आदर कर/राम अपना पाठ याद कर/रमा नल पर बर्तन रख/कमल दाल भात खा/समाज में बिष बेल की तरह पनप रहे और गहराई में अपनी जड़ें जमा चुके इस लिंग भेद पर कवयित्री तीखा प्रहार करती हैं।
वास्तव में, यह हमारे समाज का कड़वा सच हैं जो आज भी इस माडर्न कहे जाने वाले समय में बदले हुए रूपों में देखने को मिल जाते हैं ।कवयित्री इस भेद-भाव पर तंज़ कसते हुए कहती हैं कि जीवन बीमा में भी/बेटे की पढ़ाई, बेटी की शादी/का संदेश बचत करने के लिए/अब। चिरैया के जान जाए, घो घो रानी कितना पानी, ग्यारह बरस की गुड़िया का अंतिम बयान- मां से, ऐसी रचनाएं हैं जिसे पढ़कर आत्मा कराह उठती है।
कवयित्री हर उस संवेदनशील मनुष्य से सवाल करती हैं कि आख़िर कब तक यह पीड़ा सहेगी बेटियां। गमले में पीपल सी ये शीर्षक कविता में ग़रीबों का दर्द उभर आता है। कवयित्री उनकी पीड़ाओं को कुछ इस तरह व्यक्त करती हैं- कड़ी धूप में/जिंदगी सूख गई/पर आंखें नदी सी बहती रही। जी-तोड़ मेहनत करने के बावजूद भी ग़रीबों की ग़रीबी दूर नहीं होती है और वे ता-उम्र दुःखों को झेलने के लिए अभिशप्त रहते हैं।
कहना न होगा कि माला सिंह जी अपनी कविताओं में समाज में शोषित, उपेक्षित लोगों के लिए आवाज़ उठाती हैं। उनका यह कविता संग्रह ‘कुछ बबूल, कुछ सेमल सी’ पठनीय है।