गजेंद्र दवे
सांचौर, जालोर
रामायण भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों का सबसे बड़ा दर्पण है। इसमें हर पात्र से हमें जीवन की कोई न कोई दिशा मिलती है। भरत का चरित्र उन महान आदर्शों का प्रतीक है, जो धर्म, त्याग, सेवा और राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत हैं। भरत केवल श्रीराम के छोटे भाई नहीं थे, वे कर्तव्यपरायणता और अनुशासन के जीवंत उदाहरण हैं।
भरत के लिए अयोध्या मात्र एक नगरी नहीं थी, वह उनकी मातृभूमि और संस्कृति का प्रतीक थी। जब उन्होंने देखा कि उनके अपने भाई श्रीराम अन्यायपूर्ण वनवास भोग रहे हैं, तो उन्होंने दिखा दिया कि व्यक्ति से बड़ा धर्म और समाज होता है।
भरत का त्याग यह सिखाता है कि सत्ता और पद के आकर्षण से ऊपर उठकर जो अपने राष्ट्र, परिवार और समाज के लिए समर्पण करता है, वही सच्चा नेतृत्वकर्ता और सेवक कहलाता है। भरत ने सिंहासन को ठुकरा कर यह संदेश दिया कि सेवा और मर्यादा से बड़ा कुछ नहीं है। उन्होंने श्रीराम की चरण पादुकाओं को राजगद्दी पर विराजमान कर दिया और स्वयं गुरुकुल समान जीवन जीते हुए सच्चे सेवक की भूमिका निभाई।
भरत का जीवन यह भी सिखाता है कि नेता वही है जो आगे बढ़कर सेवा करे और पीछे रहकर संगठन या राष्ट्र को आगे बढ़ाए। भरत ने चौदह वर्षों तक तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए अयोध्या की सेवा की, श्रीराम का स्मरण किया और हर कार्य में धर्म का पालन किया। यह जीवन शैली हमें बताती है कि सच्चा सेवक वह है जो स्वयं के सुख-दुख से ऊपर उठकर अपने कर्तव्य में रत रहे।
भरत का जीवन यह प्रेरणा देता है कि व्यक्ति का कर्तव्य समाज, राष्ट्र और संस्कृति के लिए होता है। एक कार्यकर्ता का उद्देश्य केवल स्वयं की उन्नति नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र को सुदृढ़ बनाना है। भरत ने दिखा दिया कि निजी इच्छाओं का त्याग कर, संगठन और संस्कृति की रक्षा ही असली धर्म है।
भरत के इस श्लोक में उनके भाव स्पष्ट होते हैं–
“न अहं राज्यं न कामये न स्वर्गं न पुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्।।”
अर्थ– “मैं न राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग, न पुनर्जन्म। मैं तो केवल दुखियों का दुःख दूर करना चाहता हूँ।”
यह विचार उस सेवाव्रती कार्यकर्ता की पहचान है जो स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज और राष्ट्र की भलाई के लिए समर्पित होता है। भरत जैसे आदर्श चरित्र यही सिखाते हैं कि कर्तव्य और त्याग ही किसी संगठन, परिवार और राष्ट्र की नींव को मजबूत करते हैं।
आज के समय में भरत से सीख
आज का युग जब भौतिक सुखों और पद की लालसा में उलझा हुआ है, भरत हमें यह शिक्षा देते हैं कि सच्चा संतुलन सेवा, त्याग और अनुशासन में है। वे हमें याद दिलाते हैं कि संगठन और राष्ट्र की सेवा में जब व्यक्ति अपने स्वार्थों से ऊपर उठ जाता है, तभी वह समाज का मार्गदर्शक बनता है।
भरत का यह जीवन दर्शाता है कि सच्ची शक्ति त्याग और मर्यादा में है, न कि केवल सिंहासन और अधिकार में। उन्होंने बिना किसी पद के भी अयोध्या की सेवा की और संस्कृति की मर्यादा को अक्षुण्ण रखा।
निष्कर्ष
भरत का जीवन केवल रामायण की एक कथा नहीं है, बल्कि यह उस त्यागी और सेवक प्रवृत्ति वाले जीवन का आदर्श है, जो राष्ट्र और समाज के उत्थान में अपने व्यक्तिगत सुख-दुख का बलिदान करने को तत्पर रहता है। भरत दिखाते हैं कि कर्तव्य और अनुशासन, संगठन और समाज को दृढ़ बनाते हैं। ऐसे आदर्शों की आज भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी त्रेतायुग में थी।
भरत का जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा कार्यकर्ता वही है जो स्वयं पीछे रहकर, संगठन और राष्ट्र को आगे रखे।
“कर्तव्य पथ पर डटे रहना ही सबसे बड़ा धर्म है।”