रूची शाही
तुम्हारी पसंद की चीज़ों से
अपना कमरा तो सजा लिया मैंने
पर कमरे में तुम्हारी अनुपस्थिति
बहुत आहत करती है मुझे
कितनी बार हाथ पकड़ के
खींच लाती थी तुम्हें
पर तुम बहुत देर नहीं रुकते थे
हज़ारों काम होते हैं
कह के निकल जाते रहे तुम
और मैं खामोशी से
हिलते हुए पर्दे को देखती रहती
सुबह से शाम हो जाती
रात के दस बज जाते रहे
मैं आवाज़ें देती, तुम अनसुनी करते
और रात भी गुज़र जाती
मेरे आठों पहर उसी कमरे में
एकाकीपन का दंश झेलते
कट रहें हैं आज भी
जहां हर चीज़ तुम्हारी पसंद की हैं
सिवाए मेरे