मेरा सवेरा- रूपा रानी

एक कश्मकश सी खींच गयी, जीवन के फलक पर
क्या श्याम क्या श्वेत, दीखता न कुछ झलक भर
किस ओर खींच रहा, मुझे प्रारब्ध मेरा
हो रही राह ओझिल, सब ओर अँधेरा
कब हो मेरे लिए मेरा सवेरा

खींच तान में ही सिमट गया मेरा जीवन
पतझर सा शुष्क लगे अब हर सावन
पर हित नित समर्पित था यह यौवन
उस असीम के चरण मिटने की चाह है, हे! मन
कैसे मिटे उलझन, कौन आसरा जो दे सहारा
‘कब हो मेरे लिए मेरा सवेरा

वन मन घूमें भटक-भटक मेरा हिरन
उमड़-घुमड़, उथल-पुथल, शांत न हो मनघन
तरल हो बरसे भी न नीर नयन
जल भार ढोते-ढोते होते यह और सघन
इस पीर की उलझन में सबकुछ मेरा हारा
कब हो मेरे लिए मेरा सवेरा

सब छोड़ गए, मुंह मोड़ गए, हर नाता तोड़ गए
यादों के बागान में रोता फूल खिला गए
टूट डाली से मुरझाने की आस जगा गए
जग छोड़ परमात्मा की राह दिखा गए
परलोक के स्वर्गीय प्रकाश में अब मेरा सवेरा
कब हो मेरा लिए मेरा सवेरा

-एचके रूपा रानी
शोधार्थी: जैन विश्वविद्यालय
संप्रति: लेक्चरर, ज्योति निवास कालेज, स्वायत्त,
बेंगलुरु 560095