Friday, March 29, 2024
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कितना उपयोगी साबित होगा श्रम कानूनों में बदलाव- मोहित कुमार उपाध्याय

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब आधुनिक उधोग धीरे धीरे शुरू हो रहा था और रेलवे, पोस्ट आफिस और टेलीग्राफ जैसी उपयोगी सेवाओं का विकास हो रहा था, उस समय भारत में आधुनिक श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। भारतीय श्रमिक वर्ग को कम मजदूरी, लम्बे कार्य के घंटे, मिलों में अस्वस्थ वातावरण, बालकों से काम लेना तथा किन्हीं भी सुविधाओं का न होना इत्यादि सभी प्रकार के कष्ट का सामना करना पड़ा लेकिन यह विधि की विडंबना ही हैं कि भारतीयों उधोगों में काम करने वाले श्रमिकों की बुरी दशा को सुधारने की मांग भारतीय श्रमिक वर्ग के अंदर से नहीं बल्कि लंकाशायर में कपड़ा कारखानों के मालिकों की ओर से आई। इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण यह था कि सस्ते श्रम के कारण कहीं भारतीय उद्योग उनका प्रतिद्वन्द्वी न बन जाए। इसीलिए इस स्थिति से निपटने के लिए उन्होंने एक श्रम आयोग की नियुक्ति की मांग की जो भारतीय उधोगों में काम करने वाले श्रमिकों की परिस्थियों का अध्ययन कर सकें। इसके लिए प्रथम आयोग 1875 में नियुक्त किया गया और आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्रथम फैक्टरी अधिनियम, 1881 पारित किया गया। दूसरा फैक्टरी अधिनियम 1891 में पारित किया गया। 1909 और 1911 में पटसन के कारखानों के लिए भी इसी ढंग से कानून बनाए गए।
भारतीय श्रमिक वर्ग स्वतंत्रता पूर्व से लेकर अब तक लगातार शासन की भेदभावमूलक नीतियों का सामना कर रहे हैं और स्वतंत्रता के पश्चात श्रमिक वर्ग की स्थिति में सुधार के लिए व्यापक स्तर पर श्रम कानून में सुधार के रूप में उचित कदम नहीं उठाया गया जिससे भारतीय श्रमिकों के आर्थिक और सामाजिक जीवन को बेहतर बनाया जा सकता।
आर्थिक और सामाजिक समानता के विपरीत राजनीतिक समानता के रूप में भी इस वर्ग को केवल एक मत, एक मूल्य तक ही सीमित रखा गया अर्थात राजनीतिक दलों द्वारा इन्हें केवल वोट बैंक के रूप में ही अधिक प्रयोग करने का प्रयास किया गया।
आधुनिक विश्व में भूमण्डलीकरण तथा उदारीकरण की प्रक्रिया अत्यंत व्यापक एवं गहरा प्रभाव डाल रही है। इस स्थिति में भारत भी इन प्रक्रियाओं की चुनौतियों का सामना कर रहे है। 1991 से देश में काफी परिवर्तन हुए हैं। अधिकांश कार्यक्षेत्रों में राज्य का स्थान निजी उद्यम ले रहे हैं। भारत में 1991 के आस पास अर्थव्यवस्था में कई संरचनात्मक परिवर्तनों के द्वारा उदारीकरण की प्रक्रिया का शुभारंभ हुआ। नीतिगत सुधारों ने अर्थव्यवस्था को उदार बना दिया है।
उदारीकरण की इस प्रक्रिया में अधिक निवेश आकर्षित करने की चाह में सरकारों द्वारा अपने नियम कानूनों में सुधार किए जा रहे हैं जिसमें श्रम कानूनों में परिवर्तन प्रमुख है।
इसके पीछे यह तर्क दिया जाता हैं कि निजी उधमियों को अधिक जोखिम से बचाया जा सकें लेकिन सरकारें अन्य प्रक्रियागत ढांचे में सुधार न करके केवल श्रम कानूनों में सुधार पर ही अधिक जोर डालती हैं जो कि गुड गवर्नेंस के नाम पर एक कलंक है।
किसी भी देश के श्रम कानून कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच स्पष्ट व्यापारिक संबंधों को स्थापित करने पर जोर देते हैं जिससे इन कानूनों द्वारा श्रमिकों और कारखाना मालिकों के संबंधों को चैक एंड बैलेंस किया जा सकें।
श्रम कानूनों का मुख्य उद्देश्य श्रमिकों के आर्थिक और सामाजिक हितों की रक्षा करना है ताकि उन्हें निर्वाह योग्य उचित मजदूरी, काम के तय घंटे, जोखिमों से सुरक्षा, स्वस्थ एवं अनुकूल वातावरण, बोनस, भत्ते इत्यादि सुविधाएं आसानी से उपलब्ध करायी जा सकें।
हाल ही में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों की सरकारों ने अपने श्रम कानूनों में संशोधन किया और इन राज्यों की तर्ज पर अन्य अनेक राज्यों ने भी अपने अपने श्रम कानूनों में सुधार करने पर विचार करना शुरू कर दिया।
उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने राज्यपाल की विशेष संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक अध्यादेश पारित कराया, जिसके अंतर्गत करार के साथ नौकरी करने वाले लोगों को हटाने, नौकरी के दौरान हादसे का शिकार होने और समय पर वेतन देने जैसे तीन नियमों को छोड़कर अन्य सभी श्रम कानूनों को तीन वर्ष के लिए स्थगित कर दिया गया है।
ये संशोधित नियम उत्तर प्रदेश राज्य में मौजूद सभी राज्य और केन्द्रीय इकाइयों पर लागू होंगे। इन नियमों के अधीन लगभग 15000 कारखाने और 8000 मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां आएंगी।
राज्य सरकार द्वारा जारी आदेश के अनुसार कोई कर्मचारी किसी भी कारखाने में प्रति 12 घंटे और सप्ताह में 72 घंटे से ज्यादा काम नहीं करेगा। इन संशोधित नियमों से पूर्व दिन में 8 घंटे और सप्ताह में 48 घंटे थी। बारह घंटे की शिफ्ट के दौरान 6 घंटे के बाद 30 मिनट का ब्रेक दिया जाएगा। बारह घंटे की शिफ्ट करने वाले कर्मचारी की मजदूरी दरों के अनुपात में होगी।
उल्लेखनीय हैं कि इस नियम के लागू होने से पहले ओवर टाइम करने पर प्रतिघंटे सैलरी के हिसाब से दोगुनी सैलरी का प्रावधान था।
इन उपर्युक्त संशोधनों के पक्ष में राज्य सरकार द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया गया हैं कि लाॅकडाउन के कारण बंद पड़ी आर्थिक गतिविधियों को दोबारा शुरू करने के लिए और राज्य के सभी कामगारों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए एवं श्रमिकों के हितों को ध्यान में रखते हुए श्रम कानूनों में संशोधन किया गया लेकिन किए गए संशोधन श्रमिकों के हित में उठाए गए कदम कारगर साबित होते दिखाई नहीं पड़ रहे है।
भारतीय संविधान द्वारा लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली के रूप में संसदीय व्यवस्था को स्वीकार किया है। प्रत्येक लोकतंत्रीय शासन का मुख्य उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना होता है। किसी भी कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य वर्ग विशेष की भावना से ऊपर उठकर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में विषमताओं को दूर करना एवं जनता को अधिक से अधिक लाभ प्रदान करना होता हैं अर्थात शासन की अंतिम व्यक्ति तक पहुंच सुनिश्चित करना। जिसके लिए सरकारों को युद्ध स्तर पर कार्य किए जाने की आवश्यकता हैं ताकि समाज के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को आर्थिक सीढ़ी के सहारे ऊपर लाया जा सकें। हालिया श्रम कानूनों में बदलाव राज्य सरकार की पूंजीपतियों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता हैं कि औद्योगिक इकाइयां सरकारी उपक्रम की तुलना में लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने में अधिक सक्षम और सहायक सिद्ध होती है और इन औधोगिक इकाइयों को सुचारू रूप से चलायमान रखने के लिए शासन द्वारा इनके अनुरूप उचित नियम कानून बनाए जाने चाहिए परंतु इसके लिए श्रमिकों के लिए मानवीय हितों एवं गौरवपूर्ण जीवन के साथ समझौता नहीं किया जा सकता।
अत: सरकारों का पूंजीपतियों के दबावों में आकर श्रम कानूनों को कमजोर करना उचित नहीं जान पड़ता हैं क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक व्यक्ति को न केवल जीवन जीने का अधिकार प्रदान किया गया हैं बल्कि इसमें गौरवपूर्ण जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है। यह अधिकार एक संवैधानिक गारंटी के रूप में राज्य के विरुद्ध प्रदान किया गया हैं जिसे चाहकर भी राज्य द्वारा इंकार नहीं किया जा सकता है।
इससे स्पष्ट होता हैं कि भारतीय संविधान के निर्माताओं ने औधोगिक कर्मकारों के जीवन को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी भावी सरकारों को प्रदान की हैं इसीलिए राज्य का यह कर्तव्य है कि इन लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए उचित एवं उपयोगी नीति का निर्माण करें।
वर्तमान वैश्विक मापदण्डों में किसी भी देश की उन्नति का मापदण्ड जीडीपी ग्रोथ रेट हैं जिसका एक दुखद पहलू यह हैं कि भारत भी इस नीति का अहम् हिस्सा बनता जा रहा हैं। देश के लगभग चालीस करोड़ कामगारों के जीवन को संकट में डालकर जीडीपी ग्रोथ रेट को बढ़ाना अपने आप में एक सुखद पहलू नहीं हैं क्योंकि कामगारों की खुशहाली सरकारों की प्राथमिकता में होना चाहिए। इस तथ्य की अनदेखी श्रमिकों को पूंजीपतियों की दया पर छोड़ने जैसा है।
सोचनीय हैं कि भारत में पहले से ही श्रम कानूनों का नियोक्ताओं द्वारा ठीक से पालन नहीं किया जाता हैं और आए दिन होने वाली औधोगिक दुर्घटनाओं में इन श्रम मानकों की पोल खुलती नजर आती है। वहीं हालिया श्रम कानूनों में इतनी अधिक छूट औधोगिक निवेश आकर्षित करने के निहित स्वार्थ के कारण कामगारों को सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा के दुष्चक्र में फंसाया जा रहा है।
इसके लिए सरकारों को एक मध्यम मार्ग निकाले जाने की आवश्यकता हैं ताकि औधोगिक पूंजीपतियों और कामगारों के बीच एक बेहतर नीति के माध्यम से उचित संतुलन बनाया जा सकें। इस आधुनिक युग में जहां अमीर और गरीब के बीच की खाईं लगातार बढ़ती जा रही हैं। एक तरफ जहाँ अमीर लगातार अमीर होता जा रहा हैं, वहीं गरीब लगातार गरीब।
इस संदर्भ में डाॅ भीमराव रामजी अंबेडकर का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण हैं कि 26 जनवरी 1950 को हम विरोधी भावनाओं से परिपूर्ण जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीतिक जीवन में हम समता का व्यवहार करेंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमता का। इन विरोधी भावनाओं से परिपूर्ण जीवन को हम कब तक बिताते चले जाएंगे ? यदि हम इसका बहुत काल तक खंडन करते रहेंगे तो हम अपने राजनीतिक लोकतन्त्र को संकट में डाल देंगे। हमें इस विरोध को यथासंभव शीघ्र ही मिटा देना चाहिए, अन्यथा जो असमता से पीड़ित हैं, वे लोग इस राजनीतिक लोकतन्त्र की उस रचना का विध्वंस कर देंगे, जिसका निर्माण इस सभा ने इतने परिश्रम के साथ किया है।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि डाॅ अंबेडकर के शब्दों में यह सामाजिक और आर्थिक असमानता की खाईं विकराल रूप में लगातार बढ़ती जा रही हैं जिसके त्वरित निदान की आवश्यकता हैं वरना एक ओर जहां इसका उल्लघंन करने पर भारत के संविधान निर्माताओं की आत्मा को चोट पहुंचाई जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर भारत के कल्याणकारी राज्य के ध्येय अंतिम व्यक्ति तक पहुंच को प्राप्त करने में भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।

-मोहित कुमार उपाध्याय
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