आसान नहीं रहा आजादी का संघर्ष: मोहित कुमार उपाध्याय

विश्व इतिहास से परिचित प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भली-भाँति जानता है कि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष विश्व का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। 15 अगस्त, 1947 के दिन भारतीय जनमानस ने न केवल ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्ति प्राप्त की अपितु पिछले 1000 वर्षों से भारत को जंजीरों में जकड़े विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों से भी मुक्ति प्राप्त की। इस शुभ दिन के अवसर पर सभी भारतीयों का वह महान स्वप्न पूरा हुआ जिसके लिए वह लंबे समय से संघर्षरत थे।

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में जो परिवर्तन आया वह उन सभी परिवर्तनों से भिन्न था, जो इससे पहले देखने को मिल रहे थे। शक, हूण, कुषाण, तुर्क, मंगोल, यवन एवं मुगल इत्यादि विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत पर आक्रमण किए और महत्वपूर्ण बात यह हैं कि इनमें से कई शासकों ने भारत पर शासन भी किया। इन विदेशी आक्रान्ताओं के शासन से भारतीय समाज पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा और न ही उसने अपना मूल चरित्र एवं आत्मविश्वास खोया।

यह विदित हैं कि इनमें से कई शासक अंतिम रूप से भारत में ही बस गए और इन शासकों ने भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं परंपरा को पूर्ण रूप से अपना लिया, परंतु अंग्रेज जो प्रगतिशील जाति के होने पर गर्व करते थे, भारतीय समाज के आत्मविश्वास को तोड़ दिया और भारतीयों को यह अहसास दिलाया कि वह स्वशासन के योग्य नहीं हैं एवं ईश्वर ने भारतीयों को सभ्य बनाने के लिए सभ्यता में अग्रगामी अंग्रेज जाति का चुनाव किया है।

भारत का सामना एक ऐसे आक्रांता से हुआ जो न केवल रंग में श्वेत था अपितु अपने आप को सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से अधिक श्रेष्ठ समझता था।

1757 की प्लासी विजय से लेकर 1857 के सैनिक विद्रोह तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस समय के लगभग संपूर्ण भारत पर, अपनी साम्राज्यवादी नीतियों और प्रगतिशील जाति के मुखौटे के बल पर, अपना राजनैतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया था जिसके परिणामस्वरूप भारत की आर्थिक और प्रशासनिक नीतियों को ईस्ट इंडिया कम्पनी अपने हितों को ध्यान में रखकर तैयार करती थी।

दुर्भाग्य की बात यह हैं कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के इन 100 वर्षों के शासनकाल में भारतीयों को लगभग 12 बड़े अकालों का सामना करना पड़ा जो अपने आप में इस तथ्य को प्रदर्शित करता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी भारतीय जनता को अपने वादे के विपरीत सभ्य बनाने के लिए नहीं वरन् भारत पर साम्राज्यवाद का शिकंजा कसने के लिए पैर पसार रही थी। 1857 की क्रांति के बाद से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी के मुखौटे को हटाकर प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण भारत की राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था को अपनी अधीनता में ले लिया।

अंग्रेजों की इस बढती धनलोलुपता का भारत के लगभग सभी वर्गों, रियासतों के राजा,  सैनिकों,  जमींदारों, कृषकों, श्रमिकों, व्यापारियों, दुकानदारों, ब्राह्मणों, मौलवियों, केवल उस पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त वर्ग को छोड़कर जो अपनी जीविका के लिए कंपनी पर निर्भर था, पर प्रभाव पड़ा।

1857 की क्रांति का सबसे बड़ा लाभ यह प्राप्त हुआ कि भारतीय जनमानस के मन में स्वतंत्रता एवं स्वराज के प्रति लगाव उत्पन्न हुआ एवं विदेशी सरकार के जुए को उतार फेंकने की इच्छा जाग्रत हुई। परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों एवं अत्याचार को उजागर करने के लिए तत्कालीन भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा 1885 में अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई।

आरंभ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारतीयों के मस्तिष्क पटल में राष्ट्रीय गौरव की भावना के प्रति उत्साह पैदा करने का प्रयास किया। यह एक ऐसा मंच था जिसके जरिए सभी भारतीयों के हितों को लेकर आवाज बुलंद की जा सकती थी। 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा “फूट डालो एवं राज करो” की नीति के तहत बंगाल का विभाजन किया गया।

इस विभाजन की प्रतिक्रियास्वरूप बंगाल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में स्वदेशी  आंदोलन का संचालन कर तीव्र विरोध किया गया और इस विरोध ने डफरिन के इस कथन को झूठा सिद्ध कर दिया कि कांग्रेस एक सूक्ष्मदर्शी अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करती है।

इसी दौरान ग्रांड ओल्डमैन ऑफ इंडिया के नाम से प्रसिद्ध दादाभाई नौरोजी ने अंग्रेजों द्वारा भारतीयों का किया जाने वाले शोषण की ओर ध्यान खींचते हुए लिखा कि इससे पूर्व भी भारत को विदेशी आक्रान्ताओं ने लूटा परंतु उन आक्रान्ताओं के चले जाने के पश्चात भारत को लूट की भरपाई करने का मौका मिल जाता था। वहीं अब भारतीयों का सामना एक ऐसे आक्रांता से हैं जो लूट की भरपाई करने का मौका ही नहीं देता।

आरंभिक काल के राष्ट्रवादी नेताओं सुरेन्द्रनाथ बनर्जी,  व्योमेशचंद्र बनर्जी, आनंद मोहन बोस, दादाभाई नौरोजी, गोपालकृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय इत्यादि नेताओं ने मिलकर भारतीयों को एकता का मंच प्रदान किया और उनके मन में स्वराज के प्रति चेतना उत्पन्न की।

इसी समयावधि में बाल गंगाधर तिलक ने यह नारा दिया कि स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभालने से पूर्व इन सभी नेताओं ने मिलकर स्वतंत्रता आंदोलन को एक ठीक “दिशा और दशा” प्रदान की जोकि अपने आप में प्रेरणादायी है एवं जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ आंदोलन का एक लंबा अनुभव लेकर 1919 में गांधीजी भारतीय राजनीति में मसीहा की तरह उभरे और स्वतंत्रता प्राप्ति तक छाए रहे। उस दौर के सभी अग्रणी नेताओं जवाहरलाल नेहरू, सीआर दास, मोतीलाल नेहरू, सरदार पटेल, डाॅ राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना अबुल कलाम आजाद, आचार्य कृपलानी, जेपी नारायण इत्यादि ने गांधीजी के नेतृत्व में ही स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया।

अत: यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी की भूमिका क्या रही! स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले और स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि गांधीजी का प्रभाव उन लोगों तक ही सीमित नहीं है जो उन्हें राष्ट्र नेता मानते है अथवा उनसे सहमत है। यह प्रभाव तो उन लोगों पर भी पड़ा दिखाई पड़ता हैं जो उनसे असहमत है अथवा उनकी आलोचना करते है।

उल्लेखनीय है कि आरंभिक काल के राष्ट्रवादी नेताओं ने अंग्रेजों द्वारा भारत के शोषण की बात तो कही परंतु उनके द्वारा निर्धन जनता के लिए कुछ नहीं किया गया। गांधीजी ने यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस निर्धन तथा भूखी जनता का प्रतिनिधित्व करती हैं। गांधीजी का मानना था कि राजनीति सामाजिक सुधार का एक माध्यम है और इसी ध्येय वाक्य के साथ उन्होंने भारतीय समाज में विधमान विसंगतियों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने जनता के सामाजिक और आर्थिक हित के लिए कार्य किए।

अस्पृश्यता को मिटाना, हरिजनों के जीवन को उत्तम बनाना, ग्राम उधोग संघ, गौ रक्षा संघ बनाना, बुनियादी शिक्षा के लिए तालीमी संघ बनाना, खादी को पुनर्जीवित करना, हाथ का कता एवं बुना कपड़ा पहनना – ये सभी कार्य गांधीजी के रचनात्मक कार्य के अंतर्गत किए गए जिससे गांव में रहने वाले निर्धन व्यक्तियों की उन्नति हुई।

गांधीजी का मूल उद्देश्य गांवों को आत्मनिर्भर बनाना था ताकि पूर्व की भांति गांव अपनी अधिकांश आवश्यकताओं एवं समस्याओं का समाधान स्थानीय स्तर पर ही पूरा कर सकें। गांधीजी साध्य एवं साधन दोनों की पवित्रता में विश्ववास रखते थे। उनका मानना था कि साधन की पवित्रता के बिना उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

इसीलिए उन्होंने स्वतंत्रता रूपी उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सत्य एवं अंहिसा रूपी पवित्र साधनों को अपनाया। गांधीजी भारतीय जनता के मन से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का भय दूर करना चाहते थे। वह भारतीयों के मन में गौरव की भावना का संचार करना चाहते थे। वह भारतीयों को इतना अधिक आत्मबल प्रदान करना चाहते थे ताकि ठीक समय आने पर एक छोटा बच्चा भी अंग्रेजी सरकार से भिड़ जाए।

गांधीजी ने 1920-22 के असहयोग आंदोलन, 1930-34 के सविनय अवज्ञा आंदोलन, 1940-41 के व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन द्वारा ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को चुनौती देते हुए उसे उखाड़ फेंकने का प्रयास किया। गांधीजी का मानना था कि वह किसी भी शर्त पर विदेशी शासन को स्वीकार नहीं कर सकते है।

अपनी इसी विचारधारा के साथ 1942 में उन्होंने “करो या मरो” एवं “अंग्रेजों भारत छोड़ो” का नारा दिया। 24 मई, 1942 को उन्होंने लिखा कि अंग्रेजों तुम चले जाओ। भारत को ईश्वर के हाथों में छोड़ दो। होने दो अराजकता, डकैतियां और गृहयुद्ध। जो आज झूठा भारत हम देख रहे हैं उसके स्थान पर इस सबसे एक सच्चा भारत जन्म लेगा। उनके इस कथन से स्पष्ट होता है कि वह भारत की स्वाधीनता से कितना अधिक प्रेम करते थे।

स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी की रणनीति थी – संघर्ष, समझौता, संघर्ष। वहीं नेहरू जी का मानना था – सतत् संघर्ष के साथ विजय। गांधीजी का मानना था कि किसी भी जनांदोलन को लगातार जारी नहीं रखा जा सकता है क्योंकि आंदोलन में एक ठहराव का समय आता ही है। उनका कहना था कि जनता किसी भी आंदोलन का ज्यादा समय तक साथ नहीं दे पाती हैं और इसका कारण है – जनता की निजी पारिवारिक जिम्मेदारियां। यहीं कारण था कि गांधीजी आंदोलन को कमजोर पड़ते देखकर उसे स्थगित करना ही अधिक पसंद करते थे।

गांधीजी शारीरिक श्रम की अनिवार्यता पर अत्यधिक जोर डालते थे। वह व्यक्तिगत रूप से शारीरिक और मानसिक श्रम में कोई अंतर नहीं समझते थे। वह सामाजिक जीवन से जांत-पांत के भेदभाव को दूर रखना चाहते थे। 1930 और 40 के दशक में वह निजी संपति का विरोध करने लगे थे और ट्रस्टीशिप के अपने सिद्धांतों को क्रान्तिकारिता का रूप दे रहे थे। उन्होंने पूंजीवाद और जमींदारी प्रथा में होने वाले जनता के शोषण की निंदा की।

गांधीजी ने सामाजिक जीवन में महिलाओं की सक्रियता को बढ़ावा देने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप भारतीय महिलाओं ने पहली बार अपने घरों की दहलीज़ को लांघते हुए गांधीजी के आंदोलनों में हिस्सा लिया। और इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है- भारत छोड़ो आंदोलन जिसमें न केवल महिलाओं ने बड़ी हिस्सेदारी निभाई अपितु सुचेता कृपलानी, अरूणा आसफ अली इत्यादि महिलाओं ने भूमिगत रहकर आंदोलन की बागडोर संभाली। वहीं ऊषा मेहता ने भूमिगत रहकर कांग्रेस रेडियो का संचालन भी किया।

स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी द्वारा अपनाए गए तरीकों से बहुत लाभ हुआ। इससे भारतीयों के मन में स्वतंत्रता के प्रति प्रेम एवं ब्रिटिश दासता से घृणा उत्पन्न हुई। वहीं साम्राज्यवादी भी घृणा करने लगे कि भारत पर अंग्रेजी अधिकार अन्यायपूर्ण एवं गलत है। गांधीजी के तरीकों से शासकों को यह मानना पड़ा कि भारतीयों के हाथों में शक्ति हस्तांतरण करना अपरिहार्य ही नहीं अपितु इसे अब देर तक रोकना असंभव है। आखिरकार इसकी परिणति 15 अगस्त, 1947 को भारत के एक स्वतंत्र एवं संप्रभु राष्ट्र के रूप में हुई।

मोहित कुमार उपाध्याय
राजनीतिक विश्लेषक एवं अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार