ध्यानचंद क्यों नहीं चाहते थे कि अशोक कुमार हॉकी खेलें: पंकज स्वामी

पंकज स्वामी

(ध्यानचंद की आज 29 अगस्त को 118 वां जन्मदिवस है। हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले ध्यानचंद के बारे में, उनके जादूई खेल, हिटलर के प्रस्ताव, भारत रत्न दिए जाने पर इतना कुछ ल‍िखा गया, जो संभवत: भारत के किसी भी महान ख‍िलाड़ी के लिए नहीं लिखा गया। ध्यानचंद के जन्मदिवस के ठीक एक दिन पहले उनके पुत्र अशोक कुमार और जबलपुर निवासी भांजे विक्रम सिंह चौहान से कई चरणों में बात कर के हॉकी के जादूगर के मानवीय पक्ष को जानने का प्रयास किया गया। यह बातचीत पैदल चलते हुए तो कभी ई रिक्शा में बैठ कर और आधी रात को पूरी हो पाई। जब अशोक कुमार से बात हो रही थी तब उनके पुराने साथी अशोक दीवान व विनीत कुमार आ गए। बातचीत रूक गई। उनके जाने के बाद बात का सिलसिला शुरू हुआ।)

ध्यानचंद का जबलपुर से कैसे बना संबंध

ध्यानचंद तीन भाई व तीन बहिनें थीं। उनके बड़े भाई मूल सिंह व छोटे रूप सिंह थे। बड़ी बहिन के अलावा रामकली व सुरजा देवी थीं। सुरजा देवी का विवाह जबलपुर के किशोर सिंह चौहान से हुआ था। किशोर सिंह चौहान राइट टाउन में हवाघर नाम के प्रसिद्ध मकान में रहते थे। जिस दिन सुरजा देवी का विवाह किशोर सिंह चौहान से 1940 में हुआ, उस दिन से ध्यानचंद का गहरा संबंध जबलपुर से बन गया। इससे पूर्व ध्यानचंद का बचपन जबलपुर में बीता था। ध्यानचंद के पिता रामेश्वर सिंह पहली ब्राम्हण रेजीमेंट में सूबेदार थे। यह रेजीमेंट उन दिनों इलाहाबाद में तैनात थी। बाद में यह रेजीमेंट जबलपुर में स्थानांतर‍ित की गई। रेजीमेंट के साथ रामेश्वर सिंह जबलपुर आ गए। ध्यानचंद जब सिर्फ चार वर्ष के बच्चे थे, तब वे पहली बार अपने पिता के बड़े भाई के पास जबलपुर आए थे। रूप स‍िंह का जन्म 1908 में जबलपुर में ही हुआ। ध्यानचंद के अंतर्राष्ट्रीय हॉकी के प्रारंभ‍िक साथ‍ियों में जबलपुर के रेक्स नॉर‍िस और माइकल रॉक थे। दोनों ख‍िलाड़‍ियों ने एम्सटर्डम (हॉलैंड) में सन् 1928 में ओलंपिक हॉकी टीम के साथ यात्रा की थी और यह टीम ओलंपिक विजेता बनी। ध्यानचंद 1922 में सेना में सिपाही के रूप में भर्ती हुए। 1927 में भारतीय आर्मी टीम के न्यूजीलैंड दौरे की सफलता के बाद ध्यानचंद को लांस नायक पद पर पदोन्नत‍ि दी गई। कुछ वर्षों बाद ध्यानचंद की पहली ब्राम्हण बटालियन तोड़ दी गई, तो वे दूसरी बटालियन पंजाब रेजीमेंट चले गए। ध्यानचंद की यहां रघुनाथ शर्मा से मित्रता हुई। रघुनाथ शर्मा की जबलपुर के तुलाराम चौक पर स्थि‍त रघुनाथ शस्त्रालय नाम की दुकान वर्षों तक काफ़ी प्रस‍िद्ध रही। ध्यानचंद और रघुनाथ शर्मा अपनी रेजीमेंट के साथ पाक‍िस्तान के बन्नू कोहट में भी रहे। ध्यानचंद और रघुनाथ शर्मा लंगोट‍िया दोस्त थे। यहां तक की विवाह के लिए ध्यानचंद की पत्नी का चयन रघुनाथ शर्मा की सलाह से हुआ और बाद में विवाह हुआ। जबलपुर के सेवानिवृत्त रेलवे सुपर‍िटेडेंट एम. लाल (र‍िछार‍िया) भी झांसी से ही ध्यानचंद के अच्छे साथ‍ियों में थे।

ध्यानचंद की आत्मकथा में जबलपुर का योगदान

हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का जबलपुर के खेल ‘भीष्म पितामह’ माने जाने वाले बाबूलाल पाराशर से भी लम्बे समय तक संबंध व सम्पर्क रहा। बाबूलाल पाराशर और ध्यानचंद परस्पर एक दूसरे के विरूद्ध हॉकी मैच खेल चुके थे। इसी प्रकार ध्यानचंद की आत्मक‍था ‘गोल’ को लिखने वाले पंकज गुप्ता की बाबूलाल पाराशर ने काफी मदद की। इस आलेख को लिखने में बाबूलाल पाराशर के संस्मरणों की सहायता ली गई। ध्यानचंद की एक पुरानी यात्रा 16 मार्च 1953 को हुई थी। ध्यानचंद उस समय नागपुर से राष्ट्रीय महिला हॉकी टीम को प्रश‍िक्षण दे कर वापस लौट रहे थे। यह टीम बाद में अख‍िल भारतीय महिला हॉकी एसोस‍िएशन के तत्वावधान में इंग्लैंड के दौरे पर गई। संयोग से उस टीम में चार ख‍िलाड़ी जबलपुर की थीं। उस समय जबलपुर जिला हॉकी एसोस‍िएशन के तत्वावधान में नागरिकों पुलिस मैदान में तत्कालीन महापौर भवानीप्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में ध्यानचंद का नागर‍िक सम्मान क‍िया गया था। उस दिन ध्यानचंद को एक जीप में बैठा कर पुलिस ग्राउंड के चारों ओर सड़कों पर घुमाया गया और करतल ध्वनि से उनका स्वागत क‍िया गया। जनसमूह के आग्रह पर उन्होंने हॉकी का प्रदर्शन क‍िया। इस समारोह में ध्यानचंद के साथी माइकल रॉक भी उपस्थि‍त थे। इसके बाद ध्यानचंद जून 1964 में जबलपुर में महिला हॉकी टीम को प्रश‍िक्षण देने आए। ध्यानचंद के पुत्र राजकुमार का विवाह जबलपुर में जीके सिंह के परिवार में हुआ था। बारात को ब्यौहार बाग स्कूल में बनाए गए जनवासे में रूकवाया गया था। जनवरी-फरवरी 1975 में मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल के आमंत्रण पर ध्यानचंद अख‍िल भारतीय विद्युत क्रीड़ा नियंत्रण मण्डल हॉकी प्रतियोगिता का उद्घाटन करने अंतिम बार जबलपुर आए थे। उस समय उन्हें पचपेढ़ी में विश्वविद्यालय के सामने विद्युत मण्डल के ब्लेग डान रेस्ट हाउस में रूकवाया गया था।

ध्यानचंद को पसंद थे बहिन के बनाए गए भरमा बैगन

ध्यानचंद की बहिन सुरजा देवी के पुत्र विक्रम सिंह चौहान अब 71 वर्ष के हैं। लगभग अशोक कुमार से उम्र में दो वर्ष छोटे। उनकी यादों में ध्यानचंद जिंदा हैं। विक्रम सिंह चौहान बताते हैं कि ध्यानचंद को अपनी बहिन सुरजा देवी द्वारा बनाए गए भरमा बैगन की सब्जी बहुत पसंद थी। विक्रम सिंह चौहान को कई बार अपनी मां के साथ झांसी जाने का मौका मिला। मामा की गोद में बैठना, उनका दुलार और बचपन में अशोक कुमार व गोविंद के साथ हॉकी खेलना उनकी यादों में तैर जाता है। बचपन में विक्रम को समझ में नहीं आता था कि मामा ध्यानचंद अपने बच्चों को हॉकी खेलने से मना करते थे।

अशोक कुमार जबलपुर में दस दिन कॉलेज में पढ़ कर वापस झांसी क्यों चले गए

अशोक कुमार से बात करने पर कई नई बातों का खुलासा हुआ। अशोक कुमार ने झांसी से इंटर पास करने के बाद कॉलेज में पढ़ना चाहते थे। उत्तरप्रदेश में श‍िक्षा की पद्धति अलग थी। इस कारण तय हुआ कि अशोक कुमार अपनी बुआ सुरजा देवी के पास जबलपुर में रह कर कॉलेज की पढ़ाई करेंगे। अशोक कुमार का जबलपुर के गोविंदराम सेक्सरिया (जीएस) कॉमर्स कॉलेज में एडमिशन हो गया। बुआ ने लाड़ प्यार से अशोक कुमार को रखा। खाने पीने पर ध्यान दिया लेकिन दस दिन में अशोक कुमार को घर की याद सताने लगी। ग्यारहवें दिन वे वापस झांसी चले गए। मां जानकी देवी ने बड़े जतन से अशोक कुमार के लिए व्यवस्थाएं की थीं लेकिन पुत्र ने उनको निराश कर दिया। उसी समय उनके बड़े पुत्र ब्रजमोहन सिंह कोटा से झांसी आए हुए थे। वे वहां एनआईएस कोच थे। उन्होंने मां से चिंता न करने की बात कर वापसी में अशोक कुमार को अपने साथ कोटा ले गए। इस प्रकार अशोक कुमार की कॉलेज की पढ़ाई बड़े भाई के पास कोटा में पूरी हुई।

जानकी देवी परिवार की आधार स्तंभ

ध्यानंचद का उल्लेख करते हुए रूप सिंह की या तो पुत्रों जिसमें अशोक कुमार की सर्वाध‍िक चर्चा होती है। अशोक कुमार का मानना है कि उनकी मां व ध्यानचंद की पत्नी जानकी देवी का परिवार की सभी सफलताओं में सर्वाधि‍क योगदान है। जानकी देवी टीकमगढ़ के पास धवारी गांव की थीं। ध्यानचंद ने सेना से रिटायर होने के बाद पूरे परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारियों को निभाने के लिए अपनी पूरा जीवन प्रश‍िक्षक के रूप में और प्रश‍िक्षण देने में बिता दिया। ऐसे समय जानकी देवी ने बच्चों की पढ़ाई लिखाई से ले कर सभी जिम्मेदारियों को पूर्ण करने में अपना जीवन लगा दिया। वे परिवार के आधार स्तंभ के रूप में मजबूती से खड़ी रहीं, बच्चों का मार्गदर्शन करती रहीं। अशोक कुमार को याद है कि जब सब बच्चे शाम को खेल कर घर वापस आते थे, तब मां लकड़ी के चूल्हे में रोटियां बनाती जाती थीं और बच्चे उनके इर्द गिर्द बैठ कर खाना खाते थे। मां के हाथ की चूल्हे में बनी रोटियां अशोक कुमार 73 साल की उम्र में आज भी याद करते हैं।
अशोक कुमार अपने पिता की चोरी व छिप कर खेलते थे हॉकी-अशोक कुमार ने कहा कि वे अपने पिता ध्यानचंद की चोरी से और छिप कर हॉकी खेलते थे। ध्यानचंद जब घर में होते थे तब वे हॉकी खेलने को मना करते थे। वे चाहते थे कि उनके पुत्र अपनी पढ़ाई में ज्यादा ध्यान दें। पढ़ाई पूरी कर के कोई नौकरी करें। दरअसल ध्यानचंद का मानना था कि उन्होंने जिस स्तर की हॉकी खेली थी, उसे उनके कोई पुत्र मैदान में उतर कर सिर्फ खानापूर्ति न करें। उन्हें यह पसंद नहीं था कि लोग पिता व पुत्र की तुलना करने लगें। अशोक कुमार को बाद में यह समझ में आया। अशोक कुमार ने बिना कोई प्रश‍िक्षण प्राप्त किए बिना कॉलेज से शुरुआत कर धीरे धीरे सफलता पाते चले गए। ध्यानचंद के सात पुत्र व चार पुत्रियां थीं। जिसमें छह पुत्र हॉकी के ख‍िलाड़ी रहे, जबक‍ि एक पुत्र एथलेटिक्स में जेवलीन थ्रो में गए। इन सभी राष्ट्रीय स्तर पर उत्कृष्ट खेल का प्रदर्शन किया। रूप सिंह के पुत्र भगत सिंह ने भी भारतीय टीम की ओर प्रदर्शन मैच में भाग लिया।

अशोक कुमार ध्यानचंद को रजत व कांस्य पदक क्यों नहीं दिखाया

अशोक कुमार कहते हैं कि विश्व कप का कांस्य पदक, एश‍ियाई खेलों का रजत पदक, ओलंपिक का कांस्य पदक हासिल कर रहे थे लेकिन गोल्ड मेडल नहीं मिल रहा था। जब अशोक कुमार घर आते थे तब ध्यानचंद और रूप सिंह की त्यौरियां चढ़ी होती थी। दोनों पूछते थे कि आप लोग क्या खेल कर आए हो। उनके लिए रजक या कांस्य पदक की कोई कीमत नहीं होती थी। अशोक कुमार ने इन प्रतियोगिताओं में जीते अपने पदक ध्यानचंद को कभी दिखाए भी नहीं। अशोक कुमार पदकों को अलग रख देते थे। अशोक कुमार के दिल में ठीस उठ जाया करती थी। जब क्वालालंपुर विश्व कप जीतने के बाद अशोक कुमार झांसी घर आए तब उन्होंने ध्यानचंद के चरण स्पर्श किए उन्होंने अशोक कुमार के सिर अपना हाथ रखा। अशोक कुमार के कैरियर के सबसे अच्छे पलों में से एक था।

घर में बाऊ जी और बाहर हॉकी के जादूगर

अशोक कुमार मानते हैं कि ध्यानचंद सादा जीवन जीने में विश्ववास रखते थे। घर में वे ध्यान सिंह थे और बाहरी दुनिया के लोग उन्हें हॉकी का जादूगर मेजर ध्यानचंद के रूप में पहचानते थे। ध्यानचंद ने बहुत सादगी से अपनी आत्मकथा को बयान किया है। उन्होंने आत्मकथा में पहली लाइन में ही लिखा है कि वे भारत देश के एक आम नागरिक हैं। अशोक कुमार के पास अपने बाऊ जी के कई किस्से हैं।