अर्थ का अनर्थ: सोनल मंजू श्री ओमर

सोनल मंजू श्री ओमर
राजकोट,
गुजरात- 360007

गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस ग्रंथ की चौपाई- “ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी” पर आजकल हंगामा मचा हुआ है। कई जगहों पर इस ग्रंथ की प्रतियाँ भी जलाई जा रहीं हैं। इस चौपाई पर आपत्ति करने वालों का कहना है कि इस चौपाई में तुलसीदास जी ने मानव समुदाय के किसी विशेष समुदाय को गंवार या शूद्र कैसे कह दिया, साथ-ही-साथ नारी, शूद्र और गंवार को ढोल और पशु की ही भांति मार खाने का हकदार कैसे माना है। लोगों का ऐसा मानना सही है या गलत यह मैं आपको तर्कशीलता के आधार पर समझाने का प्रयास करती हूँ-

सर्वप्रथम तो हमें प्रस्तुत पंक्ति की पूरी चौपाई जाननी चाहिए जिससे हमें ज्ञात होगा कि इसे किस संदर्भ में कहा गया है। चौपाई कुछ इस प्रकार है-

“प्रभु भल किन्ह मोहि सिख दीनी,
मरजादा पुनि तुम्हरी किन्ही।
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,
सकल ताड़ना के अधिकारी।।”

प्रभु श्रीराम जब तीन दिनों तक समुद्र से लंका तक का रास्ता मांग रहे होते है और समुद्र देवता कुछ नही बोलते तो प्रभु श्रीराम क्रोध में समुद्र को जलविहीन बनाने हेतु अपना धनुष उठा लेते है और तब समुद्र को अपनी गलती का एहसास होता है और वह प्रभु श्रीराम के समक्ष हाथ जोड़कर उपरोक्त पंक्तियों को दोहराता है।

इस चौपाई की प्रथम पंक्ति से स्पष्ट हो रहा है कि प्रभु ने भला किया समुद्र को सीख देकर, जिससे उसका उद्धार हुआ और फिर समुद्र उदाहरण देते हुए कहते है कि जैसे आपकी सीख से मेरा उद्धार हुआ वैसे ही ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी भी उद्धार की अधिकारी है।

जिस प्रकार भगवान को “ताड़नहार” कहा जाता है अर्थात माया-मोह, भव-बंधन से पार लगाने वाला, उद्धार करने वाला। उसी प्रकार सिद्ध होता है कि “ताड़न” का अर्थ ‘उद्धार’ है, न कि दण्ड या पिटाई।

अब इस चौपाई के शब्दों को थोड़ा और समझने का प्रयत्न करते है। जैसा कि ज्ञात है कि यह ग्रंथ लगभग 400 वर्ष पूर्व लिखा गया है। तब से लेकर अब तक हमारी भाषा के साथ-साथ शब्दों के अर्थों में भी बहुत परिवर्तन हुआ है। उदाहरणस्वरूप सूत्र शब्द का हिंदी अर्थ धागा या डोरी होता है और संस्कृत में सूत्र को ज्ञान की भाषा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है जैसे वैज्ञानिक सूत्र, गणतिय सूत्र आदि। इसी प्रकार हिंदी में अर्थ शब्द को अर्थशास्त्र या मतलब के लिए प्रयुक्त करते है और अंग्रेजी में अर्थ से तात्पर्य धरती से होता है, ठीक इसी प्रकार-

1. ढोल (अर्थात वाद्य यंत्र जिसे हमारी सनातन संस्कृति में उत्साह का प्रतीक माना गया है। इसके थाप से हमें सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। जिससे जीवन स्फूर्तिमय, उत्साहमय हो जाता है। इसलिए विभिन्न शुभ अवसरों पर आज भी ढोलक बजाया जाता है।)

2. गंवार (अर्थात गांव के रहने वाले लोग जो छल-प्रपंच से दूर अत्यंत ही सरल स्वभाव के होते हैं, जिनमें ईश्वर का वास होता है और अत्यधिक परिश्रमी होते है। इनमें वे सभी अनेकों देवी-देवता और संत महर्षि गण भी है जो आदि-अनादि काल में गाँव में निवास किए।)

3. शूद्र (अर्थात चौथा वर्ण जो अपने कर्म व सेवाभाव से इस लोक की दरिद्रता को दूर करता है और कर्म ही सेवा है इस सेवा व कर्म भाव से लोक का कल्याण करता है। यह वर्ग ईश्वर को काफी प्रिय होता है।)

4. पशु (अर्थात जो एक निश्चित पाश में रहकर हमारे लिए उपयोगी हो। प्राचीन काल और आज भी हम अपने दैनिक जीवन में भी पशुओं से उपकृत होते रहे हैं। पहले तो वाहन और कृषि कार्य में भी पशुओं का उपयोग किया जाता था। आज भी हम दूध, दही, घी विभिन्न प्रकार के मिष्ठान्न इत्यादि के लिए पशुओं पर ही निर्भर हैं। जिनको हम दैव प्रतीक मानकर पूजते भी है।)

5. नारी (अर्थात जगत-जननी, आदि-शक्ति, मातृ-शक्ति जिसके बिना इस चराचर जगत की कल्पना ही मिथ्या है। नारी का हमारे जीवन में माँ, बहन, बेटी इत्यादि के रूप में बहुत बड़ा योगदान है। नारी के ममत्व से ही हम अपने जीवन को भली-भांति सुगमता से व्यतीत कर पाते हैं। जो विशेष परिस्थिति में पुरुष जैसा कठिन कार्य करने से पीछे नहीं हटती है। जिसे हमारी संस्कृति में पुरुषों से अधिक महत्त्व प्राप्त है।)

अब कुछ लोग कहेंगे कि चलो ठीक है गंवार, शूद्र और नारी के लिए तो ताड़ना का अर्थ उद्धार करना मान लेते है, परन्तु ढोल और पशु का उद्धार कैसे किया जा सकता है? दरअसल एक-एक शब्द में गूढ़ अर्थ निहित होता है, इसी प्रकार प्रस्तुत चौपाई में ताड़ना शब्द के कई अर्थ हैं जो भिन्न-भिन्न शब्दों के साथ भिन्न-भिन्न अर्थ दे रहा है। जैसे यहाँ ढोल के साथ ताड़ना शब्द का अर्थ पीटना है। गंवार, सूद्र और नारी के साथ ताड़ना शब्द का अर्थ उद्धार करना है और पशु के साथ ताड़ना शब्द का अर्थ ध्यानपूर्वक दृष्टि रखना है।

अब कुछ लोग कहेंगे कि मैं तो अपनी मनमर्जी से अर्थ गढ़ रही हूँ! लेकिन ऐसा नही है, यदि आपने हिंदी भाषा में अलंकार पढ़े होंगे तो यह बात आपको अच्छे से समझ आएगी। आइए मैं आपको श्लेष अलंकार की एक सुप्रसिद्ध पंक्ति का उदाहरण देकर समझाती हूँ-

“सुबरन को खोजत फिरत, कवि, व्यभिचारी, चोर।”

यहाँ सुबरन का प्रयोग एक बार किया गया है, किन्तु पंक्ति में प्रयुक्त सुबरन शब्द के तीन अर्थ हैं; कवि के सन्दर्भ में सुबरन का अर्थ अच्छे शब्द, व्यभिचारी के सन्दर्भ में सुबरन का अर्थ सुन्दर वर्ण की स्त्री, और चोर के सन्दर्भ में सुबरन का अर्थ सोना है।

अब आप सोचिए जिस श्रीरामचरितमानस में केवट को, निषादराज को, शबरी माता को, अनसुइया माँ को, अहिल्या माता को इतना मान- सम्मान दिया गया हो। जिस संस्कृति में यहां तक कहा गया हो- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवताः (जहां नारी पूजनीय हो, वहां देव भी निवास करते हैं)। उस संस्कृति के महान संत, एक महान धार्मिक ग्रंथ में नारी को पिटाई योग्य कैसे कह सकते हैं या किसी व्यक्ति समुदाय को बुरा-भला कैसे कह सकते है? यहाँ इस तर्क से भी यह बात स्पष्ट हो रही है कि इस चौपाई पर उठ रहे विवाद बेकार है।

अभी इसी प्रकार कुछ माह पूर्व शिवलिंग के अर्थ को भी गलत तरह से प्रस्तुत करने की चेष्ठा की जा रही थी। कई लोग शिवलिंग को शिव का गुप्तांग कह रहे थे। ये वही लोग हैं, जिन्हें संस्कृत भाषा की समझ नहीं है। जैसे कि मैंने ऊपर भी कहा है कि अलग-अलग भाषाओं में एक जैसे उच्चारित शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ होते है। इसीलिए जिस लिंग शब्द को लोग गुप्तांग से जोड़ रहे थे उस लिंग शब्द का वास्तव में संस्कृत भाषा मे अर्थ- चिन्ह, प्रतीक या निशान होता है। इसीलिए शिवलिंग का अर्थ हुआ शिव का चिन्ह, शिव का प्रतीक, शिव का निशान।

अब जरा सोच के बताइए भाषा विज्ञान में हम पुल्लिंग और स्त्रीलिंग पढ़ते हैं। पर क्या स्त्री का भी लिंग होता है, नही ना? अब शिवलिंग के आकार की बात करते है। स्कन्दपुराण में बताया गया है कि आरम्भ में ऋषि-मुनि दीपक पर ध्यान केंद्रीत करके भगवान की आराधना करते थे, लेकिन लम्बी अवधि तक प्रयास करने के बाद भी वो ध्यान केंद्रीत नही कर पाए क्योकि, हवा चलने के कारण दीपक की लौ हिलती रहती थी। तब उन्होंने इसका विकल्प खोजा और दीपक के लौ के आकार का पत्थर बनाया और उसे शिवलिंग के रूप में स्थापित और मान्य किया। इसलिए शिवलिंग वास्तव में दीपक या प्रकाश का प्रतीक है, जो हमें भगवान को पाने की राह दिखाता है।

अन्ततः मैं यही कहूँगी कि सही अर्थों को जाने बिना शब्दों के अर्थ का अनर्थ न करे। बाकी- “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।”

डिस्क्लेमर- उपरोक्त लेख में प्रकाशित विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। ये जरूरी नहीं कि लोकराग न्यूज पोर्टल इससे सहमत हो। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही उत्तरदायी है।