मानसिक स्वास्थ्य और बढ़ती आत्महत्याएं- माज़िद अली

वो कायर था, बुज़दिल था, हालात का सामना नहीं कर सका, उसे अपने घर वालों की भी फ़िक्र नही थी, इसलिए उसने आत्महत्या कर ली। सामान्यतः हम बस इतना ही कहकर कुछ दिनों में सब भूल जाते हैं, लेकिन ऐसा होता क्यों है, एक सामान्य सा व्यक्ति इतना बड़ा कदम उठाता क्यों है, क्या वजह हो सकती है, जिसे भविष्य में सुधारा जा सके, इसपर विचार नहीं करते हैं। फ़िल्म कलाकार सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या पूरे देश को झकझोर देने वाली घटना रही। यें वही शख़्स है जो एक खिलाड़ी के बायोपिक में हालात का सामना करना, हिम्मत ना हारना और जीतना सिखाते है, वही एक और फ़िल्म में अपने बेटे को पूरे समय यही समझाते है कि आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है और असल जीवन मे खुद ही ऐसे कदम उठा लेतें हैं।
हाल की ही बात करें तो सुशांत सिंह की ही पूर्व मैनेजर दिशा सालियान ने इमारत से कूदकर आत्महत्या कर ली थी, क्राइम पेट्रोल में काम करने वाली प्रेक्षा मेहता ने भी फांसी लगाकर जान दे दिया, कुशल पंजाबी जो कई शो में काम कर चुके थे उन्होंने भी फांसी लगाकर मौत को गले लगा लिया। जब कोई जाना माना व्यक्ति कुछ ऐसा करता है तो हमारा ध्यान उस पर केंद्रित होता है लेकिन देखा जाए तो हर दिन अनेक लोग ऐसे कदम भारत में उठा रहें है। 2019 के एनसीआरबी के रिपोर्ट के अनुसार देश मे वर्ष 2018 में 1,34,518 लोगो ने आत्महत्या की थी, जिसमें 92,114 पुरूष और 42,391 महिलाएं थीं। इनमे महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले थे।
अब सभी को क्या हम कायर या बुज़दिल मान ले, इनमे बहुत से ऐसे व्यक्ति भी होते है जो सामान्य जीवन मे काफी निडर और मजबूत भी होते है। आत्महत्या एक अस्वस्थ मानसिक स्थिति का परिणाम होता है, जैसे किसी शारिरिक बीमारी में व्यक्ति की जान चली जाती है, ठीक वैसे ही यहाँ मानसिक बीमारी में भी होता है। अब शारिरिक बीमारियों के प्रति हम जागरूक है तो हम ये सोचकर चलते है कि पहले तो हम खुद का बचाव करे, रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत बनाए जिससे कोई बीमारी न हो, फिर अगर कोई बीमारी हो गयी तो हम उसका इलाज करवाते है और सम्भवतः ठीक हो जाते है।
मानसिक बीमारी के सम्बंध में भी हमे यही सोच बनाने की आवश्यकता है, पहले तो हम अपने मन को स्वस्थ रखें, मन की प्रतिरोधकता को मजबूत बनाये ताकि कोई समस्या हमारे दिमाग पर हावी ना हो सके, कोई तनाव अवसाद का रूप ना ले सके, लेकिन अगर फिर भी हमारा मन अस्वस्थ हो जाए तो उसका इलाज करवाएं। जैसे हमारे शारीर को इलाज की जरूरत होती है वैसे ही मन को भी होती है।
इंसान मानसिक रूप से इतना कमजोर क्यो होता जा रहा है, कि वो जीवन के उतार चढ़ाव को झेल नही पा रहा और अवसादग्रस्त या अन्य मानसिक रोगों का शिकार हो जा रहा। हमें ये समझने की और स्वीकार करने की जरूरत है कि अगर हम बहुत अच्छे दिन देख रहें है तो निश्चित रूप से बुरे दिन भी देखने पड़ सकते हैं, और बुरे दिन चल रहें है तो अच्छे दिन भी आएंगे। हम क्यो सिर्फ अच्छे दिन में ही जीना चाहते है, क्यो बुरे वक्त में हिम्मत हार देतें है। अगर इस दुनिया मे हम है, तो हमारे साथ समस्या भी है, हम उनसे बच नही सकते, उनका सामना करना पड़ता है। अक्सर लोगो के जिंदगी में बहुत बड़ी बड़ी समस्याएं आती है, लेकिन हर कोई हिम्मत नही हारता। सबके जीवन मे एक ऐसा कमजोर पल जरूर आता है जब उसको लगता है कि वो सब कुछ हार गया, अब कुछ भी नही बचा, लेकिन उस कमजोर वक़्त में जो खुद को संभाल ले, जो उस तनाव और प्रेशर को झेल ले, वो जीत जाता है। आत्महत्या एक ऐसा अंतिम निर्णय होता है, जहाँ इंसान को लगता है कि अब सब कुछ खत्म हो चुका है, यहाँ से आगे कोई रास्ता नही है, लेकिन सच्चाई ये नही है, हम ज़िन्दगी को कभी भी दोबारा से शुरू कर सकते है, बस हमको हिम्मत नही हारना होता है, हमे सकारात्मक सोच बनाना पड़ता है। हमारे समाज मे ही कई ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिन्होंने सबकुछ खोने के बाद शून्य से शुरुआत किया और आज कामयाब है।
मानसिक बीमारी के तौर पर देखें तो ये बहुत महत्वपूर्ण है कि हम मानसिक स्वास्थ्य के प्रति कितने कम सजग है, किसी को शारीरिक रूप से कुछ हो जाए, तो हम तुरंत दवाई लेते है या डॉक्टर से सलाह लेते है, लेकिन मानसिक रूप से अस्वस्थ होने पर क्यो नही? नींद की दवाई ले लेना या एन्टी डिप्रेशन की दवाई ले लेना ही इलाज नही होता, अगर साइकोलॉजीकल दृष्टि से देखे तो मानसिक बीमारी का थेरैपी आधारित इलाज होता है और बीमार व्यक्ति को एक निश्चित अवधि तक काउंसिलिंग करके ठीक करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन बहुत अफसोस की बात है कि हमारे यहां मानसिक रोग की समस्या तो बहुत है लेकिन उस रोग के प्रति जागरूक नही है या फिर ये भी कह सकते है कि तनाव, डिप्रेशन, अनिद्रा को हम सीरियस ही नही लेता और उसे रोग ही नही मानते। बहुत से लोग तो समाजिक कारणों से भी साइकोलॉजिस्ट के पास नही जाते है, मन मे हिचकिचाहट होती है, क्योकि उन्हें उनके ही समाज मे पागल समझ लिया जाएगा। मेरा खुद का भी व्यक्तिगत अनुभव रहा है जब मैं बी.एच.यू. के सरसुन्दरलाल अस्पताल के मनोचिकित्सा विभाग में काउंसलर के तौर पर प्रैक्टिस कर रहा था, अधिकतर रोगी समाज से छिपकर मानसिक बीमारी का इलाज करवाते थे, यहाँ तक कि कई ऐसे भी होते थे जो अपने परिवार से भी ये बात छिपाते थे। इन्ही सब कारणों से बहुत से लोग कभी इलाज ही नही करवा पाते हैं। ये सब इसलिए है क्योंकि हमारे समाज मे मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की बहुत कमी है।
लोगों को लगता है कि समय के साथ ठीक हो जाएगा लेकिन होता उल्टा है, समय के साथ समस्या कम नही होती बल्कि बढ़ जाती है, और कुछ लोगो की इतनी ज्यादा समस्या बढ़ती है कि वो आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है। किसी भी व्यक्ति में आत्महत्या का ख्याल अचानक नही आता, ऐसे ख्याल दिमाग मे लम्बे समय तक आते है और फिर एक दिन वो इंसान ऐसे कदम उठा भी लेता है। आवश्यकता है इसके प्रति जागरूक होने की, इसके लक्षण को पहचानने की, और ऐसे व्यक्ति को सम्भालने की, उनका सहयोग करने की और एक अच्छे इलाज की, ताकि उस व्यक्ति को समय रहते बचाया जा सके। समय निकल जाने पर अफसोस करने से कहीं बेहतर है, समय रहते प्रयास किया जाए। डिप्रेशन एक जंग की तरह होता है, या तो इंसान उस से जीत जाता है या फिर जिंदगी से हार जाता है।
डब्ल्यूएचओ ने भारत को सबसे अधिक अवसादग्रस्त देश माना है और यदि देश का हाल देखा जाए तो हमारे यहाँ मनोचिकित्सक की भारी कमी है। आबादी के आधार पर प्रति 8000 से 10000 लोगो पर एक मनोचिकित्सक होने चाहिए, लेकिन वर्तमान में प्रति 2 लाख पर एक मनोचिकित्सक ही है। कस्बो या समुदाय स्वास्थ्य केंद्रों की बात की जाए तो यहाँ आपको एक भी मनोचिकित्सक नही मिलेंगे। समाज और सरकार को भी इसपर ध्यान देने की आवश्यकता है, जिस तरह अन्य बीमारियों के लिए योजनाए बनाई जाती है वैसे ही मानसिक रोगों के इलाज पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

-माज़िद अली