बिन नैनों के बुझे धरा पर,
ऐसा शोर मचा जाऊंगा,
चंद क्षणों के रहते कितने,
क्षणों को केंद्र बना जाऊंगा,
मैं विनय चाहूंगा उस जीवन को,
जो नवयुग का निर्माण करे,
कर दूंगा एक राग समर्पित,
जो लोग कहीं आभास करें,
मेरी किशोरावस्था के क्षण,
बीत बीत के सब कुछ बोलेंगे,
मेरी प्रारंभवास्था के कण,
बीत बीत के सब कुछ बोलेंगे,
कर लुंगा इस वाक्य को पूरा,
जो मेरे अंतर में है,
ना छोडूंगा एक वाक्य अधूरा,
जो मेरी वाणी में है,
आज नहीं मुझे कल की चिंता,
जिस दिन मेरी चिता जलेगी,
प्राण नहीं मुझे प्रण की चिंता,
जो काल के साथ समाप्त रहेगी,
एक दिन ऐसा होगा कि,
मेरे आंख ना पढ़ पाएंगे,
रीढ़ की हड्डी झुक जाएगी,
मेरे हाथ ना लिख पाएंगे,
अपने नैनों के बुझने से पहले,
मेरे जीवन में सब कुछ होगा,
वो होगा जो हुआ नहीं था,
नैनों के बुझने से पहले।
-विनय
(सौजन्य साहित्य किरण मंच)