स्याह रातों के ख़वाबों ने
छुआ था कभी
संगलाख उँगलियों से जिन्हें
ग़म के लबों पे आज
फ़िर से शबनम के क़तरें हैं
चिलमनों से झाँकते थे कभी
वो हसरतों के मरघट
दर्द की आँखों में आज
फ़िर से फिज़ाँ के मेले हैं
ख़्वाहिशें रोया करती थी कभी
अपनी ही मज़ार पे
बेजान जिस्म में आज
फ़िर से रूहों के बसेरें हैं
तेरी आहटों के मुन्तज़िर
अब हम नहीं, ऐ ज़िन्दगी
जहाँ रखें है क़दम हमनें,
वहीँ जन्नतों के डेरें हैं
-सुरजीत तरुणा