मुझे टुकड़ों में जब भी बांटता है
कई वादे भी उसमें टांकता है
तुम्हारी मन की सीढ़ी क्या चढूं मैं
मेरा किरदार मुझको डांटता है
करेगा अपनी मन की ही हमेशा
हमारी नब्ज केवल जांचता है
खुली रखी है जब से घर की खिड़की
कोई जुगनू वहां से झांकता है
न जाने कितने गम आते हैं बाहर
पिता जब खाट पर से खांसता है
इक्ट्ठी यूं तो है रौनक शहर की
मगर गलियों का मौसम कांपता है
गली में सिसकियां उभरी है किसकी
घरों में कौन छुप के हांफता है
-डॉ भावना
मुजफ्फरपुर