लिख तो देती हूँ मैं
मन अपना
क्यों तुम आँखों से ही
पढ़ पाते हो….
कोरे सफ़ेद
कागज़ पर
क्यों सिर्फ स्याही
बिखरी पाते हो….
शब्द कठिन
लगते है मेरे या
बंधी हुई गिरहें
खोल नही पाते हो….
भीगें हुए से
शब्दों को देख
क्यों नम नही
हो पाते हो….
खुशियों से जब
नाचते है शब्द ये
क्यों तुम आल्हादित
हो नही पाते हो….
गुनगुनाते है जब ये
संगीत जीवन का
क्यों साथ इनके
मदमस्त नही हो पाते हो….
इस स्याही की
ऊष्मा को
क्यों तुम महसूस
नही कर पाते हो….
दस्तक देते इन
शब्दो के लिए
क्यों अपने
मन का कोना खोल
नही पाते हो….
-शिरीन भावसार
इंदौर (मप्र)