चित्रा पंवार
ये जिएंगे
उदास मौसमों में भी
बस खिलेंगे नहीं
पेड़ दुःख के दिनों में
आत्महत्या नहीं करते
बस चुपचाप
उन दिनों को
अपनी छाया से
वंचित कर देते हैं
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कितना गहरा है
उस प्रतीक्षा का दुःख
जो एक मस्तक ने चुम्बन की
एक बीज ने उगने की
बेरोजगार ने नौकरी
और दरवाज़े ने दस्तक की
उम्मीद में उम्र भर की
फिर भी अंततः
निराशा ही हाथ लगी
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दर प्रेम है
दीवार बंधन
दर और दीवार में यही फर्क है
दीवारें बांधती हैं
दर मुक्त कर देते हैं
इसीलिए फांदी जाती हैं दीवारें
कभी न लौटने के लिए
लांघे जाते हैं दर
जाने से पहले
लौट आने की कामना के साथ
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