माटी के इस देह के अंदर
धमनी और शिराओं में
दौड़ती रक्त की यति-गति को
सांसों के आरोह-अवरोह को
नियंत्रित करने वाली
अंतर में पल-पल हर पल
तरंगित अदृश्य दिव्य शक्ति
जब खो जाती है शून्य में
तो बुझ जाती है जीवन-ज्योति
फैल जाता है अंधेरा
इसके कोटरों में और
निस्तेज यह माटी का देह
मिल जाता है माटी में ही
जाने वाले तो चले जाते हैं
छोड़ जाते हैं पीछे
अपने कहे हुए शब्दों को
अपनी अदाओं को
कभी न भरने वाले
एक सूनेपन और खालीपन को
-रानी कुमारी
पूर्णियाँ, बिहार