स्वप्न की स्मृति में
एक ओझल चित्र,
बार-बार समीप आता है
मै उसे देखना चाहती हूँ
समझना चाहती हूँ,
क्योंकि वह मेरी
अधलिखी कविता है
जिसे पूरा करना चाहती हूँ
इतनी चैतन्यता नहीं अभी मुझमें,
नहीं कोई उपकरण है पास मेरे
जो एक क्षण में उसे पहचान लूं
हर दफा जिक्र होता है,
पन्नों पर उसका,
वह कौन है?
क्या कोई धीरोदात्त है,
या अधछिपा साया है
मैं सहमी सी उसे टटोलते हुए
बेतरतीब पीछे चली जाती
कोई रंग नहीं उसका
जो कर पाती है,
उसके सुंदरता का वर्णन
वह कोई आसान गणित नहीं है
जो कोई विधि से हल हो जाए
कठिन संरचना है उसका
बस एक बार मैं खोना चाहती हूं
किसी अंतहीन सपने में
उसे ढूंढना चाहती हूँ
-नेहा सिन्हा