आके पूछते हैं वो हमें कैसा लगा
अब क्या बताएं उन्हें कैसा लगा
उन्हें देखा तो कुछ ऐसा लगा
किसी हूरे-जन्नत के जैसा लगा
वक़्त गुजरा उनके बाहंपोश में,
न भूल सके, उन्हें कुछ वैसा लगा
चलते हुए रुक गए क्या सोचकर,
उसने पुकारा, पीछे से सहसा लगा
अनुमान नहीं है तेरे बिन ज़िन्दगी,
जो तुम न होती, सोच भय सा लगा
जानते हो तुम, मेरी कमज़ोरी हो
अकसर तड़पाना तेरा पेशा लगा
माना शराब घूमा देती है ‘उड़ता’
तेरी शायरी में नशा मय सा लगा
-सुरेंद्र सैनी बवानीवाल ‘उड़ता’
झज्जर, हरियाणा