कैसे भूल जाऊँ अपना गाँव
जहाँ रात ऐसे आती थी
जैसे सितारों से भरी चादर
ले आती थी ओढ़ाने को
शहर की बड़ी-बड़ी इमारतों में
चांद मुश्किल से ही दिखता है
मानो कि निगल लिया हो
ग्रस लिया हो राहु-केतु ने
पहले पहल भोर
चिड़ियों की चहचहाहट के साथ होती थी
और सूरज भी बड़े प्यार से माथा चूम के उठाता था
और शहर की सुबह
गाड़ियों के शोर से, पड़ोस के लोगों के
गला साफ करने की आवाज़ों से शुरू होती है
गांव में दहलीज के सामने ही
फूलों का पौधा लगा है,
मन और तन खिल उठता था देखकर
जैसे ही उठ कर बाहर आती
तो सुबह-सुबह दहलीज पे फूल बिखरे रहते थे
और उन पर चल कर आना
किसी अप्सरा से कम महसूस नहीं कराता था
और शहर में बाहर निकलो तो
सड़कों पर गाड़ियों का धुआँ,
गली में किसी के लड़ने की आवाजें
बस में खाए जाने वाले धक्के
ये महसूस कराते थे
भाई क्यों आए हो यहाँ
ज़िन्दगी आधी हो जाती है
गाँव के सारे सुखन हमारे के से हैं
जहाँ की आबो हवा में
ज़िन्दगी बढ़ जाती है
रह रह कर याद आती है
गाँव की गलियारों की
कैसे भूल जाऊँ अपना गाँव
-सुनीता वालिया
भाषिक प्रयोगशाला परिचर, हिन्दी विभाग
स्नातकोत्तर राजकीय कन्या महाविद्यालय,
सैक्टर 42, चण्डीगढ़