दिनकर अस्त हो चला है
गगन क्षितिज के तले,
छंटेगा तम का अंधियारा
आशाओं के हैं दीप जले
टिमटिमाते असंख्य हैं तारें
जीवन का संदेश लिये,
सूरज सी है चमक नहीं
फिर भी स्वाभिमान जीयें
आशा ही जीवन है सोच
कर्मवीर अकेला चलता है,
सफलता पीछे-पीछे होती
दर्शकों की लगती मेला है
निराशा देती यम को दावत
जीवन दीर्घायु हो भले,
सुखी हैं तन-मन से वही
जिसके आशाओं के हैं दीप जले
-त्रिवेणी कुशवाहा ‘त्रिवेणी’