जिधर सब जाते हैं, हम भी उधर जाते हैं
और फिर देखते हैं, हम किधर जाते हैं
गाँव के बूढ़े बरगद पे अब छाँव नहीं आती
आराम करने के लिए, हम शहर जाते हैं
पहचान मिली नहीं तन्हाइयों के आँगन में
किसी दिन भीड़ में, हम भी उतर जाते हैं
ना अब वो दिलरूबा, ना ही शोखियों का मौसम
बहुत बदनाम हुए इश्क़ में, अब हम सुधर जाते हैं
किसी तो घर में मिलेगा मेरा खुदा मुझे
बस यही सोच कर, हम दर-बदर जाते हैं
मेरी ज़िन्दादिली की मिशाल भी देखे कोई
मौत आई कई बार, हर बार हम मुकर जाते हैं
सलिल सरोज
नई दिल्ली