मेरा अन्नदाता रोता है,
आंसू से आंखें धोता है,
वो भोर सबेरे उठकर,
खेतों की ओर निकलता है
न सूट है उसके तन पर,
न बुट है उसके पैरों पर,
वो जग को अन्न दिलाने को,
दिन रात एक करता है
वो फटी एड़ियों पर,
मिट्टी का लेप लगाता है,
वो खेतों को प्यासा पाकर,
बेचैन सा हो जाता है
बच्चों के फट्टे कपड़ों पर,
नजरें जब भी गुजरता है,
वो खुब बिलखता रोता है,
किस्मत को दोष देता है
जग अन्न से हरदम भरा रहें,
इस खातिर बीज बोता है,
हर एक बाली को हाथों पर,
लेकर उसे संजोता है
खेतों की हरियाली खातिर,
न रात को भी वो सोता है,
वो शाम सबेरे खेतों पर,
पसीने से तन को धोता है
जयलाल कलेत
रायगढ़, छत्तीसगढ़