जल तरंगों में किलकती,
मछलियाँ उपर को आईं
झुण्ड में बच्चे बहुत थे,
देख चारा मुस्कराई
चंद टुकड़ों में पता क्या
मौत बंध कर आ पड़ा है
जिन्दगी की डोर लेने,
तट शिकारी आ खड़ा है
जल परी बच्चोँ को अपने,
कुछ खिलाना चाहती थी
मधुर लहरों संग किलक
हंसना सिखाना चाहती थी
ज्योंही खाया चंद चारा,
विधि ने गले में काँटा बोया
मछली माँ खींचा शिकारी,
बच्चों का समूह रोया
हो कहाँ माँ! खोजते वे,
जल में बहते जा रहे थे
देख कर असुरक्षित बच्चे,
जीव उनको खा रहे थे
जाने क्यों मन रो पड़ा था,
हिंसक ने यूँ पीडा बिछाया
ऐसे भोजन की व्यथा से,
बचने का था मन बनाया
मछली हो, या जीव कोई,
जिन्दगी का दर्द सम है
आदमी के जैसा ही
जीवों को जीवन का गम है
अर्चना कृष्ण श्रीवास्तव