इनकी ताकतों से तू है अनजान रे,
कैसा मौका परस्त है तू इंसान रे।
कर मत कुर्सी का तू अभिमान रे।
यही तो है देश का आन-बान रे,
देश का अन्नदाता है ये किसान रे।
कर मत कुर्सी का तू अभिमान रे।
ज़ुल्म क्यों कर रहा, उन भूमिपुत्र पर,
सामने आकर उसे तू पहचान रे।
कर मत कुर्सी का तू अभिमान रे।
जिसने पलकों पर बिठाकर तुझे,
कर दिया सर्वोच्च देश तेरे नाम रे।
कर मत कुर्सी का तू अभिमान रे।
उन पर लाठियां चलाकर आज,
तू कर रहा है उनका अपमान रे।
कर मत कुर्सी का तू अभिमान रे।
इनका अन्न खाकर, तू बना है इंसान रे।
अब तो मत बन जा तू बेइमान रे
कर मत कुर्सी का तू अभिमान रे।
तेरे मनमानी का न होगा असर,
इनके बाजुओं में है चारों धाम रे।
कर मत कुर्सी का तू अभिमान रे।
जयलाल कलेत
रायगढ़, छत्तीसगढ़