देह में चुभती
स्मृतियों को
खरोंच कर निकालना
उतना ही यातनामय होता है
जितना कि रोकना
एक अंधेरी थकान को
घर के दरवाजे पर ही
मैं लौटा-लौटा देती हूँ
धूल, धुआँ, कोलाहल
और आँधियों का वेग
कि सम्भव नहीं
इनकी मुक्ति मेरे पास
अपने सिरहाने रखती हूँ मैं
बस मुट्ठीभर छाँव
बारिश की बौछारें
और टेसू के फूल
कि चुभता है मुझे
एक शांत नदी में
किसी पत्थर को फेंकना
स्मिता सिन्हा