बहुत याद आता है, दादी का वो गाँव
वो मिट्टी का आँगन और पीपल की छाँव
हर छुट्टियों में गाँव चले जाना
सब भाई बहनों के साथ
मिलकर खूब उधम मचाना,
वो अँगीठी पर सिकी रोटी
बैठ आँगन में सब बच्चों का
संग मिलकर खाना,
और गपागप खाकर
फिर फर्स्ट हो जाना
हरे भरे खेतों की पगडंडियों पे
खूब दौड़ लगाना,
पेड़ की डालियों पे लटक उसे
अपना झूला बनाना
तब सारी प्रकृति ही
हमारा खिलौना थी,
दादी की बाहें हीं
हमारा नर्म बिछौना थी
पर फिर धीरे धीरे सब
बस गए शहरों में,
बहना पड़ा सबको
ज़रूरत की लहरों में
जब भी ससुराल जाती हूँ…
ट्रेन दादी के गाँव से ही होकर गुजरती है
पर रुकती नहीं…
पर मेरा दिल तो वहीं रुक जाता है,
मेरा बचपन मुझे फिर से बुलाता है
वो गाँव के साथ बहती गंगा नदी
और मंदिर का वो गुम्बद
ट्रैन की रफ़्तार के साथ
आँखों से धीरे धीरे ओझल
होता चला जाता है
पर मैं वहीं छूट जाती हूँ
समय की कमी के कारण वहाँ गए कई साल बीत गए…
पर जाऊँगी जरूर फिर से
अपने बच्चों के साथ
अपना बचपन जीने,
फिर से पगडंडियों पे दौड़
उन पेड़ की डालियों पे झूल
लगाने अपने सीने…
-कंचन मिश्रा
(साहित्य किरण मंच के सौजन्य से)